वे साधारण सिपाही जो कानून और व्यवस्था में काम आए
शायद कुछ सपनों के लिए
शायद कुछ मूल्यों के लिए
कुछ-कुछ देश
कुछ-कुछ संसार
लेकिन ज़्यादातर अपने अभागे परिवारों के भरण-पोषण के लिए
हमने दूर-दराज़ रात-बिरात
बिना किसी व्यक्तिगत प्रयोजन के
अनजानी जगहों पर अपनी जानें लगाईं
जानें गँवाई
हम क़ानून और व्यवस्था की रक्षा में काम आए
लेकिन हमारे बलिदान को आँकना
और उस बलिदान के सारे पहलुओं को समझना
एक आस्थाहीन और अराजक कर देने वाला अनुभव रहेगा
जो अपने कारनामों के दम पर
इस मुल्क की सड़कों पर चलने का हक़ भी खो चुके थे
हमें उनकी सुरक्षा में अपनी तमाम नींदें
और तमाम ज़िंदगी ख़राब करनी पड़ी
उन्माद और सांप्रदायिकता का ज़हर और क़हर
सबसे पहले और सबसे लंबे समय तक हम पर गिरा
हम उन इलाक़ों की हिफ़ाज़त में ख़र्च हुए
जहाँ हमारे बच्चों का भविष्य चुराकर
काला धन इकठ्ठा करने वालों के बदआमोज़ लड़के-लड़कियाँ
शिकार करें और हनीमून मनाएँ
या उन विवादास्पद संस्थाओं की सुरक्षा में
जहाँ अंतरराष्ट्रीय सरमाए के कलादलाल
हमारी कीमत पर अपनी कमाऊ क्रांतियाँ सिद्ध करें
हमें बंधक बनाया गया
या शायद हम जब तक जिए बंधक बनकर ही जिए
लेकिन हमारे सगे-संबंधी इतने साधन संपन्न नहीं थे
कि राजधानी में दबाव डाल सकते
और उन्होंने हमारे बदले किसी को रिहा कर देने के लिए
छातियाँ नहीं पीटीं
जो क्रांतिकारी थे
उन्होंने हमें बेमौत मारने वालों के लिए छातियाँ पीटीं
जो बुद्धिजीवी और पत्रकार थे
उन्होंने क्रांतिकारियों के लिए छातियाँ पीटीं
हम साधारण परिवारों से आए मनुष्य ही थे आख़िरकार
लेकिन ह्यूमैनिटीज़ के प्रोफ़ेसर और विद्यार्थी
जो शाहज़ादों की शान में पेश-पेश थे
हमें दबी ज़ुबान व्यवस्था का कुत्ता बोलते थे
व्यवस्था दबी ज़ुबान बोलती थी
बेमौत मरने के लिए
हमें तनख़्वाह मिलती तो है
हम इस यातना को सहते हुए
चुपचाप मरे
लेकिन हमारे बीवी-बच्चे जो आज भी बदहाल हैं
हवाई जहाज़ पर उड़ने वाले नहीं थे
इसलिए न उन्हें पचास हज़ार डॉलर मिले
न फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन के मौसेरे पुरस्कार
ये चीज़ें समाज के लिए नहीं
समाजकर्मियों के लिए बनी थीं
हम भी समाज का हिस्सा थे
हमें माना नहीं गया
हम भी समाजकर्मी थे
हमारी सुनी नहीं गई
और यह हम तमाम गीतों और प्रार्थनाओं के बीच कह रहे हैं
कि हमारे अपने अफ़सरों ने
जिन्हें ख़ुद एक सिपाही होना था
हमें अपने घर झाड़ुओं की तरह इस्तेमाल किया
और यह भी हम तमाम गीतों और प्रार्थनाओं के बीच कह रहे हैं
कि कोई उल्लू का पट्ठा इतना अच्छा होगा
जो हमें बताए
कि अपने बीवी-बच्चों के साथ
जिस तरह की ज़िंदगी जिए हम
वह क्या किसी आंदोलन या सम्मेलन में
कभी कोई महत्त्वपूर्ण एजेंडा रही?
- रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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