एक स्वनाम-धारी वृद्ध से मिलते हुए
ek svnaam dhari vriddh se milte hue
कीली की तरह गड़ गई यह मेरी नज़र
मुझ पर
मैं वृद्ध-आँखों में भरे मन एक भारी नींद का गहरा असर
(जिसमें अग्नि का अंजन स्वयं मैं आँजता था)
अँधेरे की तरह मखमल-मुलायम पोत-से
मेरे सुकोमल बाल
आज रूखे
सूखे हुए घास के तिनकों सरीखे
इधर-उधर हैं उड़ रहे।
मोटी और बेडौल, अरे किसी रस्सी-सी निर्जीव
मेरी नसें सब एक साथ उभर रही हैं।
(जिनमें तीव्र गति से बहते हुए उष्ण मेरे रक्त में
शत सूर्य की ऊष्मा भरी थी)
'फिर मिलेंगे' कहकर वह नलिन चला गया
कोलाहलो की भीड़-भाड़ से टूटने के करीब इस मार्ग पर
‘ज़रूर मिलेंगे’ बड़बड़ाते मैं मूढ़
बीस साल पीछे छोड़, कहीं मेरी भूल में,
मैं भूल में आगे-ही-आगे कहीं चलता चला।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 241)
- रचनाकार : नलिन रावल
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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