गोली चली
नज़दीक के कच्चे मकान से
मैंने किसी के कराहने की आवाज़ सुनी थी
और पुलिस के ख़ौफ़नाक दस्ते के
पास आने की भी।
खिड़की, दरवाज़े
सब बंद कर लिए थे मैंने
गोलियाँ चलने की आवाज़ें
नज़दीक आने लगी थीं।
मैंने भयभीत हो
लिहाफ़ में मुँह डाल लिया था
मेरा मकान, किसी खंडहर की तरह
काँप रहा था।
पुलिस वैसे ही दरिंदगी में थी
दहशत में डूबा हर व्यक्ति
बिना आँसुओं के रो रहा था।
महिलाएँ घर के कोनों में दुबकी थीं
बच्चे खेलने की सुध भूल चुके थे
जिनकी आँखों में विवशता थी
मुट्ठियों में बंद आक्रोश था
दरवाज़े पर दस्तक नहीं हुई
उसे तोड़ा गया था।
मैं अभी भी बिना हिले-डुले
मौत का इंतज़ार कर रहा था।
मौत जो आनी ही थी
मेरी ही नहीं,
मेरी जाति के हर व्यक्ति की।
महिलाओं को
बलात्कार का शिकार होना था
और बच्चों को अनाथ।
अगले ही पल
मैं पुलिस की गिरफ़्त में था।
हममें से हर कोई
अपने ही ख़ून में डूबा था
पुलिस की रायफ़ल के कुंदे
अभी भी मेरे ज़ख़्मों के भीतर
गड़ रहे थे।
धीरे-धीरे हम
लाशों में तब्दील होते जा रहे थे।
पुलिस की बंद गाड़ियाँ
हमें नदी की ओर ले जाने लगी थीं।
मौत से जूझते हुए दर्दनाक पल
और पानी में डूबती-उतरती लाशें
हम सभी विवश थे।
कुछ पल बाद
हम सब
ज़िंदा आदमी से
शवों में बदल गए थे
और ज़िंदा क़ौम का इतिहास
मुर्दों के बीच लिख रहे थे।
- पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 104)
- संपादक : कँवल भारती
- रचनाकार : मोहनदास नैमिशराय
- प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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