एक
पहले हरे-भरे खेत मिले
खेतों के बीच से गुज़रता रास्ता मिला
वृंदावन का पता बताते लोग मिले
ऊँचे-पक्के मकानों से घिरी-घुटी
आड़ी-तिरछी, बेहद सँकरी गलियाँ मिलीं
गलियों में बैठी, भीख माँगती विकलांग श्रद्धा मिली
जिससे आँख मिलाना मुश्किल था
अभाव मिला और अभाव में ढिठाई से चमकता संतोष मिला
जिससे तुक बिठाना मुश्किल था
मक्खियों से बचाकर रखे जाते पेड़ों की शक्ल में प्रसाद मिला
कारोबारी क़िस्म के पंडे मिले, पंडों जैसे कारोबारी मिले
उनकी कहानियाँ मिलीं, कहानियों में
धर्म और कारोबार को फेंट कर बनाई गई स्मृति मिली
जो दावा करती थी कि उसका हर्फ़-हर्फ़ सही है
तुलसी के पेड़ों से अटके-लटके बंदर मिले
डूबता हुआ सूरज मिला, उदास बहती यमुना मिली
टूटे हुए घाट मिले, खड़ी हुई नावें मिलीं
मगर जिसे खोजते-खोजते हम वहाँ पहुँचे थे,
वह वृंदावन न जाने कहाँ खो गया, मिला ही नहीं।
दो
बीकॉम में पढ़ने वाले रिंकू पंडित हमें इक्यावन रुपए में वृंदावन की सैर करा रहे थे,
कृष्ण और राधारानी के नाम उनके मुँह से फूल की तरह नहीं धूल की तरह झर रहे थे
कुछ भूल की तरह भी झर रहे थे श्लोक और दोहे भी।
सोलह हज़ार वृक्षों वाले तुलसीवन में रोज़ रात को अब भी कृष्ण आते हैं
यह भरोसा उनके आस्था से ज़्यादा उनकी कारोबार की ज़रूरत से निकलता मालूम होता था
जब कृष्ण आते हैं तो ये सोलह हज़ार तुलसी के पौधे सोलह हज़ार गोपियों में बदल जाते हैं
यह कविता एक नितांत दुनियावी क़िस्से की धूल में सनकर वहीं के किसी मंदिर में पड़े और घिसे पत्थर जैसी चिकनी हो गई मालूम होती थी
बताते-बताते रिंकू पंडित डराने भी लगे
सोलह हज़ार वृक्षों वाले इस तुलसीवन में रात को कोई नहीं रुकता
जो रुकता है, उसका दिमाग ख़राब हो जाता है या उसकी आँखें फूट जाती है
यहाँ तक कि बंदर भी शाम को निकल आते हैं
रिंकू पंडित ने हमें ख़ूब घुमाया
मगर समझ में नहीं आई यह माया
गलियों में भटकते पाँव के साथ भटकता रहा
आस्थाहीन मन, थोड़ी अनमनी उदासी के साथ
थोड़े इस कौतूहल के साथ कि क्या किसी ने इस वन के वृक्षों की गिनती की भी है?
थोड़ा इस ख़याल के साथ—क्या होगा गिनकर—ये दुनिया का नहीं,
दुनिया के बाहर का हिसाब है जो वन में नहीं मन में बसता है
जो इसमें फँसता है
वह भी एक तरह की पोंगी सांसारिकता का शिकार होता है।
दरअसल, हम लोग जैसे जीने लगे हैं
वह आस्था-अनास्था से दूर जीवन का एक और प्रकार होता है
जिसमें कभी-कभार हर भ्रम को सत्य और हर सत्य को भ्रम मानने की इच्छा होती है
और इस उलझन में, भटकन में, किसी ऊब-चूभ या डूब में कविता मिले या कीच, लगता है,
वही अपने हिस्से का मोती है।
तीन
क्या कृष्ण को याद करूँ?
बताऊँ कि वह वृंदावन नहीं बचा,
जिसने तुम्हें और तुमने जिसे रचा।
उसकी जगह बचा हुआ है किरचा-किरचा झूठ
और क्षत-विक्षत विश्वास,
कि यही वह जगह है
जहाँ राधारानी और गोपियों के साथ
तुमने रचाया था महारास।
लेकिन कृष्ण क्या कहेंगे?
कहेंगे तो तब जब वे यह सब सुनेंगे?
क्या है कोई सुनने वाला?
या कोई कहने वाला भी?
या सब समय की गढ़ी आकृतियाँ हैं
जो क़िस्सों में ढल गई हैं?
किसे हम खोजने जाते हैं?
कौन मिलता है, किसे पाते हैं?
या सब सिर्फ़ बातें हैं?
दरअसल, यह आना-जाना
पूछना-बताना
विश्वास-अविश्वास
महाभारत या महारास
क्या सिर्फ़ बाहर के खेल हैं
क्या असल में हर जीवन एक कुरुक्षेत्र है
जहाँ स्मृति के या कल्पना के हथियारों से
हर कोई अपना युद्ध लड़ता है, अपने ढंग से जीता है?
जो किसी अंतिम सत्य तक पहुँचा सके,
क्या ऐसी कोई गीता है?
चार
सूरज बुझ कर यमुना में गिर चुका था
नदी की सतह पर उसकी काली राख बिछी हुई थी
जिसे कहीं-कहीं रोशनी की बरछियाँ चीरती-सी थीं
पीछे बेडौल सन्नाटे घाटों का अनजानापन
हिदायत दे रहा था कि यहाँ से जल्दी निकल जाएँ।
तभी दिखी वह छोटी-सी बच्ची,
थाली में दीये सजाए
ताकि कोई उससे ख़रीदे और सिराये
दस रुपए में एक।
पता नहीं,
यह सस्ता पुण्य करने की इच्छा थी
या डूबते अँधेरे में एक टिमटिमाती लौ
जिसमें कभी-कभार हम अपनी ओझल आत्मा के अचानक कुछ क़रीब चले आते हैं
लेकिन हमने भी दीया ख़रीदा
और
(बिना किसी अनुष्ठान के, बिना कोई मंत्र पढ़े, बिना कोई जाप किए)
उसे चुपचाप सिरा दिया।
नहीं मालूम,
नदी में कहाँ बुझा, कहाँ जा लगा
या किनारे पर ही लौट आया
वह दीया,
लेकिन वह एक लम्हा था
जब हमने खोए हुए वृंदावन को,
उस बच्ची की आँखों की चमक में पा लिया।
- रचनाकार : प्रियदर्शन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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