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एक नापसंद जगह

ek napsand jagah

नलिन विलोचन शर्मा

नलिन विलोचन शर्मा

एक नापसंद जगह

नलिन विलोचन शर्मा

और अधिकनलिन विलोचन शर्मा

    एक दिन यहाँ मैंने एक कविता लिखी थी,

    यहाँ जहाँ रहना मुझे नापसंद था

    और रहने भेज दिया था।

    जगह वह भी, जहाँ रहना अच्छा लगता है

    और रहता गया हूँ,

    वहाँ शायद ही हो कि कविता कभी लिखी हो।

    आज फिर इस नापसंद जगह

    डाल से टूटे पत्ते की तरह

    मारा-मारा आया हूँ,

    और यह कविता लिख गई है,

    इस जगह का मैं कृतज्ञ हूँ,

    इस मिट्टी को सर लगाता हूँ,

    इसे प्यार नहीं करता, पर

    बहुत-बहुत देता हूँ आदर,

    यह तीर्थ-स्थल है, जहाँ

    मैं मुसाफ़िर ही रहा,

    यह वतन नहीं,

    जहाँ जड़ और चोटी

    गड़ी हुई,

    जो कविता की प्रेरणाओं से अधिक महत्व की बात है।

    यहाँ मैं दो बार मर चुका हूँ :

    एक दिन तब जब पहली कविता

    यहाँ लिखी थी,

    और दूसरे आज जब इस कविता

    की याद में कविता

    लिख रहा हूँ :

    घर के शहर में जीता रहा हूँ

    और मरने के बाद भी

    जीता रँगा :

    एक लॉकेट में क़ैद,

    किसी दीवार पर टँगा चित्रार्पित,

    एक स्मृति-पट पर रक्षित अदृश्य

    अमिट।

    लेकिन यहाँ से कुछ ले जाऊँगा,

    कुछ तो पा ही

    चुका हूँ : दो-दो कविताएँ,

    दिया कुछ नहीं है, देना कुछ नहीं,

    सिवा इसके

    मेरे प्रणाम तुम्हें,

    इन्हें ले लो, इन्हें।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नलिन विलोचन शर्मा
    • प्रकाशन : कविता कोश

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