कभी-कभी
यह मन मेरा भी
दो विचारों में डूबा जाता।
प्रतीत यों होता
मेरे दामन हैं
एक हल में जुटे बैलों की नाईं
जो आपस में टकराते रहते।
एक मन कहता बनो प्रचारक
उसके नियमों-आदर्शों का
घर-घर उसका अमर संदेश
गली-गली वे गीत सुहाने
उसके जयकारों के संग
आकाश का भी हृदय काँपता
पहन लो फिर सादे वस्त्र
भाषण करना तुम सीख लो
लोगों को उलझाने ख़ातिर
केवल उनको मूर्ख बनाने
झगड़ों, भोजों, तोड़-फोड़कर
छूआछूत के शीशे चढ़ाकर
अपना मान बढ़ाने ख़ातिर
इनका भी सम्मान बढ़ा दो।
तब तेरे प्रचार प्रभावित—
वाह-वाह करते सीधे-सादे
जनसाधारण उमड़ पड़ेंगे
शांति प्रेरक तेरे भाषण
मचा देंगे इक उथल-पुथल
लेकिन यदि हम देश के भीतर
भाई-चारा और शांति रह गई
तब कौन सुनेगा तेरे भाषण
कौन तेरे उपदेशों पर कान धरेगा।
कौन यह जानेगा कि
बापू क्या-क्या चाहता था इस देश की ख़ातिर
उसको अमर बनाने का
यह भी अच्छा एक उपाय है।
ज़हर भरे जाओ लोगों के भीतर
छूआछूत और संप्रदायवादिता
देश के भीतर पालते जाओ
तब ही फिर
प्रतिवर्ष एकत्रित होगी जनता सारी
उसका पर्व मनाने ख़ातिर
ऊँचे नारे लगाने ख़ातिर
फिर तेरे भाषण पर
ताली से आकाश गूँजेगा
तुम कहना ऊँचे स्वर से
“उसके नियम अपनाओ लोगो
अमल करो कुछ उनके ऊपर।
दूसरा कहे तू मूर्ख है
क्या अर्थ है इस सादे वसन का
लंबे भाषण ऊँचे नारे
मन में ही जब गाँठें हैं
मैला कुचैला कपटी लोभी।
तू जालिम है, तू हत्यारा
बापू की वह अमर आत्मा
सपने सारे देख अधूरे
सिसक रही है, बिलख रही है
तू क्यों फिर उसको भाई,
चौथी गोली मार रहा है
शायद, यहाँ कोई और भी ऐसे
देख रहे हत्यारे कितने
स्वार्थ की पिस्तौलों के भीतर
जयकारों के गेंद छुपाकर
सत्य और न्याय भाग रहे हैं
अहिंसा जा छुपी कोने में
शांति हुई है मात्र, अभ्यागत
फिर किसका तू प्रतिवर्ष पर्व मनाता
उपदेशों या नियमों की ख़ातिर
नारों का कोई महत्त्व नहीं है
सत्य के दीपों में बंधु,
जयकारों का तेल न जलता
जब तक अमल और विश्वासों की
जोत पड़े न उसके भीतर।
- पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 86)
- संपादक : ओम गोस्वामी
- रचनाकार : शिवराम 'दीप'
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2006
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