एक क्षण आता है
हेमंत की साँझ-सा
धूसर, गंध-भरी रात में
बिलम जाने को उत्सुक
ऐसा एक क्षण आता है
कभी भी अकस्मात्, अनजाना,
उसी क्षीण
तुम मेरे पास होते हुए भी
मैं ही नहीं होती तुम्हारे निकट,
मैं होती हूँ दूर-दूर
तुम्हारे भीतर की सीमाएँ तोड़कर
बाहर आने वाली
अनुभूतियों के पीछे भागती फिरती हूँ मैं।
मेरे सम्मुख बैठे तुम
कुछ भी बुदबुदाते हो
शायद
मद-भरे, प्रणय-सिक्त शब्द वे,
शब्दों में रस की बूँदें
आसपास झरती हैं,
लेकिन मेरे ये श्रुतिपट
होते हैं दूर
बहुत दूर कहीं
तेरी अवाक् शक्ति
और अंत के मौन बीच
जो साँठ-गाँठ चलती है,
उसी की टोह में
मेरा मन दौड़-दौड़ जाता है।
कान्हा की मुरलिया पर
बावरिया राधा का मन जैसे।
बैठकर मेरे निकट
तुम मुझको निहारते हो,
आषाढ़ी मेघ-से
भरे हुए नयनों से
मैं भी तुम्हें देखती हूँ
शायद नहीं भी देखती
फिर भी दृष्टि मेरी
केंद्रित हो जाती है
तेरी उन नज़रों पर
जो मुझसे मेरा मैं-पन
बाहर की खींचती हैं,
इसलिए कि उसमें
तेरा अस्तित्व-बोध घुल सके।
वासंती पवन की
शक्तिशाली भुजाओं-सा
तुम मेरा आलिंगन करते हो,
पर मैं उनसे झट छूट कर
पहले ही दूर चली जाती हूँ
तुम्हारी उन बाँहों में
जो मुझे ऊपर-ही-ऊपर उछालती हैं
गरुड़ की उड़ान-सा,
जाने किस अप्राप्य की कांक्षा में?
और ऐसे ही किसी क्षण में
तुम पास होते हुए भी
तुम्हारे न होने का बोध होता है,
शायद तुम सचमुच ही पास नहीं होते
या शायद तुम भी
मेरे ही समान
कहीं दूर भटकते रहते हो,
मेर ही खोज में
मैं जो स्वयं भटकती फिरती हूँ
अचीन्ही पगडंडियों पर
अजानी दिशाओं में।
और तब
धूमिल गंघ-भरी रात में
वह अनाहूत क्षण
ख़ुद-व-ख़ुद रीत-रीत जाता है
जैसे एकांत में
निःश्वासें छोड़ते
कपूर जलता है—
अनसूँघे गलता है।
- पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 98)
- रचनाकार : पद्मा गोले
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- संस्करण : 1965
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