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एक जिंघांसु का वक्तव्य

ek jinghansu ka waktawy

जगदीश चतुर्वेदी

जगदीश चतुर्वेदी

एक जिंघांसु का वक्तव्य

जगदीश चतुर्वेदी

और अधिकजगदीश चतुर्वेदी

    टूटकर अर्राकर गिरते पहाड़,

    गंधक भरी नदियाँ

    झरनों के श्वेत-फेनों पर

    लावे की अनगिनत परतें

    असंतुलित जीवन और हाहाकार!

    एक नगर मरता है

    और तमाम गलियों में फैलता है मृत्यु-विष,

    भर गया है।

    ज्वालामुखी के मुखों का विषैला धुआँ

    इस महानगर की निरापद शांति में!

    भाग रही हैं चीख़ती-चिल्लाती—

    निरापद जीवन को असहाय गायों-सी ढोती घरेलू औरतें

    पानी में नाव चलाते बच्चे डूब रहे हैं भयभीत—

    निकल रही है अश्रु-धार!

    सड़ाँध से भर रही हैं गलियाँ

    अंधों से टकरा रहे हैं मूर्ख विदूषकों के

    घबड़ाए हुए चेहरे

    एक भयावह स्वप्न-सा

    सुबह का रोता हुआ आईने में झिलमिलाता विकृत चेहरा

    जिसे मैंने अनजाने ही देख लिया है आज,

    और मेरा असंतुलन एक विद्रूप हँसी-सा फैल गया है

    चारों ओर!

    मैं ठठाकर हँस रहा हूँ

    (हः हः हः हः हः हः हः)

    मुझे लाशों की अगरु गंध प्यारी है

    कटते बच्चों और स्तन टूटी माताओं का दारुण शोर

    —आज की यह मृदुल-सी भयावह भोर!

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 45)
    • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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