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एक हिंदू की कविताएँ

ek hindu ki kawitayen

प्रियदर्शन

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एक हिंदू की कविताएँ

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    एक

    अपने हिंदू होने में मेरा कोई हाथ नहीं
    न मेरे पिता का उनके हिंदू होने में कोई हाथ रहा होगा
    इतिहास की विराट प्रक्रिया में कब-कब कोई परिवार या समाज
    किन आवश्यकताओं या आकांक्षाओं के तहत
    इंसान से हिंदू, ईसाई या मुसलमान होता चला गया
    यह बताना बहुत मुश्किल है।

    लेकिन अपने हिंदू होने की इस अज्ञात कथा से मेरा कोई बैर भी नहीं है।

    अगर हिंदू होने का मतलब राम की करुणा, कृष्ण के प्रेम और शिव के औघड़पन या बाक़ी सैकड़ों देवी-देवताओं के उदार, मददगार, निर्भीक स्वभाव से कुछ हासिल करना है 
    तो अपना हिंदू होना मुझे मंज़ूर है।

    लेकिन सिर्फ़ हिंदू होने की वजह से मैं राम के अन्याय का, कृष्ण की अमर्यादा का, इंद्र के अपराध का समर्थन करूँ, यह न मुझे मंज़ूर होगा और न शायद उन देवी-देवताओं को, जो पूजे जाने योग्य हैं। 

    हिंदू होने की सहज आस्था में राम, कृष्ण और शिव की, दुर्गा-काली और पार्वती की, लक्ष्मी और गणेश की भक्ति कोई करना चाहे तो उससे भी मुझे एतराज़ नहीं,
    जो निरगुनिया राम को पूजना चाहे उसका भी स्वागत है।

    लेकिन अपने हिंदुत्व को मैं ऐसा चाबुक नहीं बना सकता जो दूसरों की पीठ पर पड़े।

    ऐसा हिंदू मैं नहीं हो सकता जो हिंदुत्व के गर्व में मनुष्यता का मर्म भूल जाए

    मेरा हिंदू होना अगर मेरी मनुष्यता के आसमान को कुछ व्यापक बना सके तो मेरा इससे कोई झगड़ा नहीं,
    लेकिन अगर वह मुझे छोटे-छोटे बाड़ों में बाँधना चाहे और दुर्विनीत या घमंडी बनाए तो इस हिंदुत्व को और सारे देवताओं को मैं दूर से ही प्रणाम करता हूँ।

    दो

    देवताओं अगर कहीं हो
    तो थोड़ी शक्ति दो
    ताकि उनसे ले सकूँ लोहा
    जिन्हें तुमने ऐसी भक्ति दी है
    कि वे कुछ और सोचने-समझने को तैयार नहीं।
    देवताओं अगर तुममे विवेक शेष है 
    तो बताओ कि धर्म का इस तरह न बचे रहना ही उचित है
    कि ऐसे धर्म की हानि में ही धर्म का हित है
    देवताओं कृपया अब न लो अवतार
    कि तुम्हे वश में नहीं मनुष्यता का उद्धार
    कि अब तुम रह गए हो बस, उनकी कुत्सित महत्वाकांक्षाओं के सारथी
    जो गाते हैं धर्म की आरती, लेकिन हैं कुत्सित राजनीति के महारथी
    वे श्रद्धा को उन्माद में बदलते हैं
    ध्वंस पर पाँव रखकर चलते हैं
    वे कभी अयोध्या से और कभी गुजरात से पहुँचना चाहते हैं दिल्ली
    इतिहास और इंसानियत की उड़ाते हैं खिल्ली
    और डरते हैं, रास्ता काट न जाए इंसाफ़ की कोई बिल्ली।
    देवताओ अगर तुम अपने भक्तों को सिखा सको थोड़ी-सी मनुष्यता,
    थोड़ा-सा अपने ऊपर करना संशय,
    तब वाक़ई अधर्म हारेगा, तुम्हारे प्रस्तावित धर्म की होगी जय।

    तीन

    यह प्रार्थना देवताओं से नहीं भक्तों से है
    जिसका वास्ता कुछ गुज़रे, कुछ आने वाले वक़्तों से है
    तो भक्तो, इंसान की न करते हो तो न सही
    भगवान की तो करो फ़िक्र
    जिसका हर बात पर करते हो ज़िक्र।

    तुम्हीं बताते हो, वह सब कुछ देखता-सुनता है, हर जगह होता है
    लेकिन वह मिलता क्यों नहीं, कुछ करता क्यों नहीं
    क्या तुम्हें दिखाई पड़ती है उसकी सूरत?
    क्या तुम्हें सुनाई पड़ती है उसकी आवाज़?
    क्या कभी-कभी तुम्हें वह रोकता-टोकता है?
    या वह बेबस सुबकता-रोता रहता है बेआवाज़?
    थर-थर काँपता रहता है अपने भक्तों के कृत्य देखकर
    क्या सुन सको उसका रोना—इतनी भी संवेदना बची है तुम्हारे भीतर?
    या कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम्हें नामंज़ूर है यह करुण-कातर भगवान
    और तुम चाहते हो वह सर्वशक्तिमान
    जो तुम्हारे उन्माद को ही तुम्हारी भक्ति,
    तुम्हारी हिंसा को तुम्हारी शक्ति,
    तुम्हारे ध्वंस को तुम्हारी रचना
    और अपने मरने को अपना बचना माने? 
    कहीं ऐसा तो नहीं, 
    तुम ख़ुद बनना चाहते हो ईश्वर
    और सोचते हो, वह भी तुम्हारी शक्ति से डरे, 
    तुम्हारी भक्ति करे।

    चार

    न कोई अफ़सोस कर, न पश्चाताप कर
    बस हर बात पर तू नमो-नमो जाप कर
    सब धुल जाएँगे चाहे जैसे भी पाप कर
    धर्म का चोला पहन देशभक्ति छाप कर
    इंसानियत छोड़ यार, इंसाफ़ को भूल जा
    बीते हुए दंगों का क्या करेगा विलाप कर
    न कोई सवाल पूछ, न कोई जवाब माँग
    विकास का कंबल ले, सो जा मुँह ढाँप कर

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रियदर्शन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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