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एक गीत

ek geet

दूर—सघन झुरमुट में

अनदेखा अनजाना कोई वन-पाखी चहचहाया

स्वर उसका छनता-छनता तरु-पत्रों से

तिरता-तिरता मंथर पवन-झकोरों पर

ध्वनि-प्यासे मेरे इन श्रवणों तक आया

रोम-रोम स्वर-सुख से सिहरा, हर्षाया

जैसे स्वयं मेरे प्राण-कुंजों में बैठी

मेरी ही यायावर आत्मा ने

बटोर कर विराट् कोई परितोष

एक गीत गाया

एक गीत—

जिसका कुछ अर्थ नहीं

पर जो है इस क्षण का उच्चारण

इस पर निमेष के सुख की, गरिमा की

सद्य: विकसित भाषा

इसी लिए : व्यर्थ नहीं

एक गीत—

भ्रम के, संघर्षों के, दंभ-दर्प-काम के

विषाक्त दलदल में

ले मधुर टेक

सहसा खिल उठने वाला उत्पल : मात्र एक!

ठहरा स्वर

छायाकृति वृक्षों से तारों के झुरमुट की ओर उड़ी

अपने दृढ़ पंख तोल

अपने ही उड्डीयन पर निर्भर

लेकिन वह (सचमुच क्या आत्मा थी)

मेरे मन के आहत पंखों में

कितना बल गई घोल!

स्रोत :
  • पुस्तक : तीसरा सप्तक (पृष्ठ 39)
  • संपादक : अज्ञेय
  • रचनाकार : प्रयागनारायण त्रिपाठी
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 2013

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