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एक दिन वह सैर पर निकली

ek din wo sair par nikli

सविता सिंह

सविता सिंह

एक दिन वह सैर पर निकली

सविता सिंह

और अधिकसविता सिंह

    एक समय बाद जैसे पेड़ गिरा देते हों अपने पत्ते

    साँप अपनी केंचुल

    मन गिरा देता है अपनी ही एक स्थिति

    आत्मा दुख

    सहज ही वैसे गिरा दिया उसने

    एक स्पर्श शरीर से

    नया-नया-सा फिर सब कुछ हो गया

    कहीं कोई ग्लानि या क्षोभ नहीं उपजा

    एक दिन फिर उसने सुखाए अपने लंबे बाल

    धूप में देर तक

    एक दिन वह सैर पर निकली

    सरसों के पीले खेतों से होती हुई

    वह गई पुराने तालाब तक

    लौटकर गाती रही अपने पसंदीदा गीत घंटों

    बरामदे में अकेली बैठकर

    एक दिन वह पढ़ती रही महादेवी को

    एक दिन माँ से मिलने गई

    मिली उन तमाम लोगों से

    मिलने की जिनसे अब तक फ़ुरसत नहीं मिली

    एक दिन वह रात देर से लौटी

    देखकर कोई लेट शो खाकर बाहर ही खाना

    बनाई अपने लिए एक कप दार्जिलिंग चाय

    सुनती रही सुबह तक

    कुंदनलाल सहगल और मलका पुखराज को

    बहुत दिनों बाद एक शरीर सुखी था

    था मन को भी इसका आभास

    स्रोत :
    • पुस्तक : नींद थी और रात थी (पृष्ठ 170)
    • रचनाकार : सविता सिंह
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2005

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