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एक बेनाम स्त्री

ek benam istri

श्वेतांक सिंह

श्वेतांक सिंह

एक बेनाम स्त्री

श्वेतांक सिंह

और अधिकश्वेतांक सिंह

    मैं एक स्त्री को जानता हूँ

    जिसे सभी घरेलू कहते हैं

    मुहल्ले में

    उसके कई नाम हैं

    कभी फ़लाने की बीवी या फ़लाना बो

    कभी फ़लाने की माँ

    कभी फ़लाने की बहू

    यहाँ तक कि

    कुछ लोगों को

    फ़लाने की बेटी वाला नाम

    अब तक याद है

    गाँव में किसी को

    कभी उसका नाम

    पता करने की ज़रूरत नहीं पड़ी

    इसलिए मुझे भी नहीं

    जैसे-जैसे

    उसकी उम्र बढ़ रही है

    उसके नाम के

    पर्यायवाची भी बढ़ते जा रहे हैं

    उम्मीद है

    अगले सावन या भादो तक

    वह फ़लाने की

    दादी या ईया कही जाने लगे

    ये भी मुमकिन है

    कि सूखती नदी में

    खेलते बच्चों की

    चाची कहलाने लगे

    एक सुबह

    मैंने निश्चय किया कि आज

    उसका नाम पूछकर ही रहूँगा

    उठते ही

    बिना हाथ-मुँह धोए

    उसके घर गया

    वहाँ वो नहीं मिली

    फिर खेत में गया

    बगीचे में गया,

    जहाँ से जानवरों के लिए

    चारा लाती थी

    उस चारागाह में गया

    आटा चक्की में देखा

    किराने की दुकान गया

    जहाँ से

    आटा, दाल, चावल और नून लेने

    दो बार रोज जाती थी

    फिर पड़ोस में भी गया

    जिनके घरों से

    चूल्हा जलाने के लिए

    कभी-कभी आग ले आती है

    जब मिट्टी तेल ख़त्म हो जाता

    या

    सिलिंडर भरवाने के पैसे नहीं रहते

    पर वो कहीं नहीं मिली

    अंत में

    मैं निराश हो घर लौटने लगा

    सोचता हुआ कि

    आज तक उसका नाम पूछा क्यों नहीं

    तभी अचानक

    वो गाँव के बाहर

    कुंड के किनारे बैठी दिखी

    एकटक उसके किनारों को ताक़ती हुई

    ऐसा लगा

    चुपचाप उससे कुछ बात कर रही हो

    मैं दौड़ते हुए उसके पास गया

    हिम्मत जुटाया और

    तपाक से पूछा

    तुम्हारा नाम क्या है?

    वो आधा मुस्कराई

    और नदी की ओर इशारा किया

    फिर बिना कुछ बोले

    चल दी गाँव की ओर

    मैं या मेरे गाँव के

    कोई पुरखे पुरनियों ने

    कभी उस नदी का नाम नहीं पूछा था

    नाम पूछना तो दूर

    प्रमाणिक रूप से तो

    ये भी तय नहीं है कि

    वो नदी है, भागड़ है, झील है

    कुंड है या कछार है

    मैं जब गाँव जाता हूँ

    सबसे पुराने कुएँ के पास

    कुछ देर खड़ा होता हूँ

    उसके भीतर

    कान खोलकर झाँकता हूँ

    कभी-कभी ख़ूब जोर से

    दो चार पत्थर

    उसके पानी को मारता हूँ

    हो सकता है

    गुस्से में आकर वो कुआँ

    उस स्त्री का नाम बता दे

    सुनता हूँ

    पाताल के रास्ते कुआँ भी

    रोज नदी से मिलने जाता है॥

    स्रोत :
    • रचनाकार : श्वेतांक कुमार सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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