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एक असाध्य प्रमेय-सा

ek asadhy pramey sa

पंकज प्रखर

पंकज प्रखर

एक असाध्य प्रमेय-सा

पंकज प्रखर

और अधिकपंकज प्रखर

    ठीक इन्हीं दिनों में

    मिले थे तुम

    टूटकर जैसे स्वर्ग से इंदीवर

    कोई गिरा हो हथेली पर मेरी

    मैं विदग्ध हो तुम्हारे स्पर्श मात्र से

    भूल चुका था संताप सारे

    विस्मृत हो गई थीं सुधियाँ सब

    पर ये क्या अभिसार को आतुर

    ज्यों ही खुले नेत्र

    हाय! जाने किस ओर गए तुम!

    पुकारता हूँ बार-बार

    देखता हूँ घूमकर

    पर्वत-नदियाँ

    द्वार-द्वार

    हाय! जाने किस ओर गए तुम!

    लौटती नहीं प्रतिध्वनि

    मेरी पुकार भी खो गई!

    काश!

    काश देख लेता एक बार

    तुमको नयन भर!

    प्राण मेरे...

    भर जाते तृषित नयन

    खिल उठते कुम्हलाए अयन

    छलक उठते अश्रु

    होता प्रफुल्लित-प्रतिपल

    गूँज उठते हृदय में

    मधुर प्रणय के गान मेरे

    हाय! पर यह हो सका

    आज इन चुप दीवारों के बीच

    शून्य-सा बैठा हुआ

    सोचता हूँ मैं!

    वह कोई दिवा स्वप्न था

    जो कल रात से

    बरबस याद रहा है मुझको

    कर व्याकुल हृदय को

    छेड़ता है राग कोई

    खींचता हैं विरह की

    एक स्पर्श-रेखा

    जीवन हो गया है

    एक असाध्य प्रमेय-सा

    छंदहीन

    प्रबंधहीन

    एक गहरे ठहरे जल में

    डूबे हुए शैवाल-सा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : पंकज प्रखर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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