इतनी तो प्यारी लगती है धरती

itni to pyari lagti hai dharti

रविंद्र स्वप्निल प्रजापति

रविंद्र स्वप्निल प्रजापति

इतनी तो प्यारी लगती है धरती

रविंद्र स्वप्निल प्रजापति

और अधिकरविंद्र स्वप्निल प्रजापति

     

    एक

    धरती इतनी तो प्यारी लगती है फिर क्यों किसी दूसरी जगह के बारे में सोचना
    कि कोई और दुखरहित स्वर्ग हो या सहस्र चक्र
    किसी भी तरह इतना आगे जाना कि लौटना न हो सके धरती पर
    जैसे ईश्वर के पास जाकर बैठ जाना माँ के सामने से उठ कर जाना है

    इतना तो ख़ूबसूरत है सब कुछ
    छोटा-सा बच्चा भी अपने लिए मेहनत के बाद पाने के लिए
    ख़ुश होने की जगह मिलती है
    धरती पर घर की दीवारें सजा कर जब कोई ख़ुश होता है
    यह ख़ुशी चाँद की तरह चमकती है

    कोई भी डिप्रेस नहीं होना चाहता कि उसे दुनिया ने ख़ुशी नहीं दी
    वह तो धरती का ज़िद्दी बच्चा है
    जो अपने मुँह पर आँचल की तरह धरती का मौसम उठा कर घूमता है
    उसका रूठना यानी सर्दी और गर्मी का ख़ुद से अधिक होना है
    जैसे नदी का नदी से अधिक गंदला हो जाना है
    किसी का चेहरा ग़ुस्से से भर जाना पाप नहीं है
    वह और अच्छा चाहता है कुछ जो अभी ब़ाकी है

    इतना तो अच्छा लगता है शाम को बाहर निकलना और सुबह खिड़की से बाहर देखना
    अपने ही आस-पास को सुधारने के लिए किसी मीटिंग में जाना
    किसी संगठन और पार्टी का सदस्य होकर संघर्ष पर उतरना और भाषण करना

    यह देश-प्रेम है जो अपनी गली और मोहल्ले के लिए चिंतित होता है
    अपनी हवाओं के लिए अपने पेड़ों और नदियों के साथ
    बहुत अच्छी तरह से अपने बेटे बेटियों को पोसने की चिंता लिए 
    और अच्छे जीवन स्तर के लिए निरंतर संघर्ष करता रहता है

    बहुत प्यार भरी आँख लिए मैं देखता हूँ पूरी चहल-पहल
    जैसे मेरा हर रोम एक आँख है और हर चीज़ गुज़र कर आर-पार निकल रही है
    जैसे हर चीज़ मुझमें मिलकर फिर बन रही है

    यह हवा जो मेरे शरीर को छूकर बह रही है
    मैं इसकी लहरों में मिला हुआ गिटार का कंपन हूँ।

    दो

    धरती को प्यार करने वाले सभी लड़के गिटार बजाते हैं
    जो डांस कर रहे हैं और गिटार बजा रहे हैं दुनिया उनकी है
    जो आवाज़ बन कर गूँजते हैं वे ही राज करते हैं
    जो बीज होकर बिखर जाते हैं वे ही किसी अनजान मिट्टी में अपने को उगा पाते हैं

    धरती पर कुछ तो इतना अलग नहीं है कि पराया लगे
    पेड़ की छाल प्यार से भरी हुई है
    पेड़ के पास बैठना पिता के पास जैसा है
    धरती का प्यार नदी की रेत दूब छाँव खेत हवा जंगल और पहाड़ जैसा लगता है
    इसको बचाए रखने की कोशिशें हमें सड़कों पर पोस्टर लेकर खड़ा करवाती हैं

    यहाँ दुख के छोटे-छोटे गड्डे हैं जिनमें हर एक का पैर आ ही जाता है
    लहराती हुई हवा धरती के चारों ओर फैले हुए सुख की कल्पना है
    जो हर मेहनती के सीने के बालों में से बह कर महकती है
    यहीं खेत में एक औरत ख़ुद को बचाने के लिए कमा रही है
    इसीलिए उसके पेट की नाभि सोने के कमल जैसी चमक रही है

    इतना तो अच्छा लगता है शहरों में रहना
    धरती शहरों को सँभाल रही है बच्चों की तरह जिनका सब जल्दी में है
    एक पौधे को रोप कर बड़ा कर रहे हैं जैसे यह धरती के लिए प्यार है
    धरती पर इतना सब कुछ है कि लोग बेईमान, आलसी और चालाक भी हैं
    कोई सुबह और कोई शाम यूँ ही नहीं गुज़रती

    मगर बहुत ग़ुस्सा आता है
    यह हमारे भीतर कुछ और नए हो जाने की आशा है
    हर आदमी का ग़ुस्सा कहीं कुछ बदलने के लिए है
    और बहुत ग़ुस्से के बाद भी इतनी अच्छी तो लगती है धरती!

    स्रोत :
    • रचनाकार : रविंद्र स्वप्निल प्रजापति
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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