हर बहने वाली चीज़ क़ासिद है—आँसू, ख़ून और नदी।
बीच की जगहें नहीं होतीं तो दो किनारे कैसे होते? कैसे इस छोर से उस छोर तक जाती नाव, उत्सव के बाद कैसे डुबोई जातीं कुमारटोली के मूर्तिकारों की गूँगी अँगुलियों से गढ़ीं देवी की मूर्तियाँ? कैसे मई की कोई दुपहरी अपनी पीली ओढ़नी दाँत में दबाए चुपचाप सुनती राग मुल्तानी?
कैसे कोई उचक कर देखता अपनी दाईं तरफ़ बैठे एक अजनबी को, बहुत देर तक सोचता अपने ख़ालीपन के उजेले में कि क्या अगले से पूछे, “समय क्या हुआ है?” और फिर चुप हो जाता अपना नाम-गाँव पूछे जाने तक।
नहीं होतीं बीच की जगहें तो पृथ्वी पर जीवन कैसे संभव होता? कि कोई दुःख कितना भी बड़ा क्यूँ न हो धरती नहीं फटती कि आदमी उसमें धँस जाए और कोई सुख इतना स्थायी नहीं कि मन छू ले आकाश लिख दे उसके कंधों पर अपने हिस्से का उल्लास और साझा की पराकाष्ठा हो।
वे रिश्ते कहाँ जाते जो उलाहनाओं और असंभव परिस्थितियों की मिट्टी में फूल से खिले रहते हैं। मौसमों के फेरबदल से अपरिचित जिन्हें जीने से फ़ुरसत नहीं। उन आशाओं का क्या होता जिनके हाथ नहीं, जिनके सिर्फ़ एक जोड़ी सही-सलामत पाँव हैं, जो बिना कुछ सोचे-समझे आगे बढ़ते जा रहे हैं।
नहीं होतीं ये बीच की जगहें तो संभव है कि विलुप्त हो चुकी होतीं कविताएँ उन कविताओं को पढ़ने के बाद पाठक का मौन और कवि का निर्मोह। चित्रकारों को नहीं मिलते वे रंग जो ईश्वर जैसी चीज़ में मनुष्य की आस्था पैदा करते हैं। रेलगाड़ी से तय किए जाने वाले सफ़र शोक से भरे होते और कोई रोता हुआ बच्चा नहीं उलझता चाभी से चलने वाले खिलौने के शोर में।
इन जगहों को दूर से देखो तो मालूम होता है कि दो पीढ़ियों के बीच घर का एक पुराना मुलाज़िम खड़ा है जो किसी भी बात पर न ज़्यादा मुस्कुराता है, न ही ज़्यादा उदास होता है। इस मुलाज़िम को ही पता हैं, मेरे और तुम्हारे सारे राज़। ख़ुदा हमारे राज़दार को हमारी उम्र से भी लंबी उम्र बख़्शे।
- रचनाकार : गार्गी मिश्र
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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