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दुविधा

duwidha

ज्योति चावला

और अधिकज्योति चावला

    सुनो, मैं एक दुविधा में हूँ

    तुम ही बताओ कि जब मेरे हृदय में

    उमड़ रहा हो प्रेम मेरी बेटी के लिए, तब

    मैं उसके लिए कौन-सी उपमाएँ दूँ

    जब मैं उसे पुकारना चाहती हूँ रानी बिटिया

    तो मुझे रानी के सारे सुख और ऐश्वर्य के साथ

    अँधेरे कोनों में उसकी आँखों से टपकते

    आँसू दिखाई देने लगते हैं

    जब पुकारती हूँ उसे फूल कहकर, तो

    एक शिकारी के हाथ उस फूल की टोह लेने को

    बढ़ते नज़र आते हैं

    पुकारती हूँ जब उसे गुड़िया तो लगता है

    जैसे सारे अधिकार छीन लिए हों मैंने ही उससे

    बोलने, तौलने और परखने के

    उसके लिए तय किए गए सारे उपमानों में

    मुझे वह अकेली और कमज़ोर ही नज़र आती है

    मैं चाहती हूँ तुमसे ही कि

    तुम ही गढ़ो कुछ नए उपमान जिनमें

    बेचारी दिखती हों बेटियाँ

    कि फाड़ दो इतिहास के पन्नों को और

    बदल दो शक्ल मिथकों की

    जिनमें कमज़ोर ही दिखती रही हैं स्त्रियाँ बरसों से

    फिर सोचती हूँ कि तुम्हारे हाथों में थमाना

    इतिहास और मिथकों को फिर से एक बार

    कहीं कोई ऐतिहासिक ग़लती तो नहीं मेरी

    मैं ही गढ़ूँगी अब नए नाम

    नई पहचान, नए इतिहास और नए मिथक

    अपनी बेटी के लिए, जहाँ

    फूल हो वह तो नोच सके कोई शिकारी उसे

    कि होने पर उसके रानी भी

    सत्ता का इतिहास जुड़ा हो उसके साथ

    और गुड़िया तो वह कभी हो

    क्योंकि जानते हो तुम भी कि

    उनके मुँह में नहीं रहती आई है ज़बान

    इन नए उपमानों में नहीं होगी वह

    कोई अबला, कमज़ोर या त्यागमयी ही

    वरन् इतिहास दर्ज करेगा उसके इन गुणों को

    गुणों ही की तरह और

    वे होंगी सृष्टि के निर्माण में अपनी भूमिका तय करतीं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति चावला
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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