(1)
आज मधुर धुन बजत सैल-पति भवन बधाई!
नाचत गावत बहु किन्नरि सुर ताल मिलाई॥
बहु बिधि फूले फूल पवन सौरभ फैलावत।
विकसे कमल तड़गन महं सोभा सरसावत॥
गिरिपुर वासिन को आनंद कह्यो नहीं जाई।
आज हिमाचल के महलन एक कन्या आई॥
(2)
सरद काल के प्रात ज्योति चहुँ दिस फैलाई।
सिंह चढ़ी बालिका एक पर्वत पै आई॥
महिष मर्दिनी कन्या दसभुज जाके सोहैं।
कर जोरे सब भक्त खरे वाको मुख जोहैं॥
बंदीजन भए मुदित तासु बिरदावलि गावैं।
मधुर गीत उल्लास भरे चहुँ दिस फैलावैं॥
(3)
सर्व भूतमय शक्ति स्वरूपिनि शक्ति तुम्हारी।
को बरनन कर सकै तुम्हारी महिमा भारी॥
तव लीला सों ब्यापि रह्यो है यह जग सारो।
तेरे ही बल को है चारों ओर पसारो॥
तेरे बल रवि तपत बहत अति वायु भयंकर।
कुपति हुतासन दाह करत उमड़त रत्नाकर॥
(4)
रवि ससि तारा अनल प्रात महं ज्योति तुम्हारी।
कस्तूरी अरु कुसुमन में सौरभ बिस्तारी॥
मृदुल मलय मारुत डोलत पक्षी बहु कूँजत।
मधुर कंठ अरु बीना में तेरो सुर गूँजत॥
सुंदरि कामिनि और लता कानन की प्यारी।
डोलत है आनंद भरी लै छटा तिहारी॥
(5)
दसों दिशा में व्यापि रही दस भुजा तुम्हारी।
थाम्यो है ब्रह्मांड सकल कै पालन हारी॥
संकट हारिनि वरदायिनि त्रैलोक्य बिहारिनि।
दुर्गति नासिनि जगत जननि सब विपद निवारिनि॥
फैल रही चहुँ ओर मातु करुना इक तेरी।
दयामयी सब जीवन पर तव दया घनेरी॥
(6)
कृपा दृष्टि करि एक बार जा पै तुम हेरो।
कमला विद्या आय करें ताके घर डेरो॥
हर्षित हिय सब देव मनोरथ पूरैं वाके।
बिना बुलाए ऋद्धि सिद्धि आवैं घर ताके॥
सुर सेनापति सजि के ताके होहिं सहाई।
दु:ख सोक अरु ताप मारिकैं देहिं भगाई॥
(7)
यह भव को आरन्य महिष सम घोर भयंकर।
सुख सुषमा को संहारक संकट को आकर॥
भयदायक अति घोर निसा को घोर अँधेरो।
करत चेतना हीन लगाए ताको घेरो॥
उदय होय ऊषा देवी निज तेज बढ़ाओ।
भीषन समन सदन महं ताकहँ मारि पठाओ॥
(8)
जब महेस बर दल्यो असुर गन देवन को दल।
मूर्तिमती तुम भई पाय सब सुरगन को बल॥
ऊँचो मस्तक तेरो नभ मंडल में छायो।
चकित भए सब देव भक्ति सों ध्यान लगायो॥
रवि ससि बन्हि समान ज्योति भई त्रय लोचन की।
भई आस हिय में सबके संकट मोचन की॥
(9)
अरपन करि निज अस्त्र सुरन तव पूजा कीन्ही।
चरन कमल को कियो ध्यान जगदंबा चीन्ही॥
तब तू करि हुँकार धसी दानव दल भीतर।
मारि गिराए असुर किते तव अस्त्रन खरतर॥
अट्टहास तव सुरगण को आनंद बढ़ायो।
नाचैं विद्याधरी मोद बहु नभ में छायो॥
(10)
प्रकृति रूपिनी हैमवती जगदंबा जाया।
फैल रही है या जग में इक तेरी माया॥
जीव जंतु अरु कीट देव मानव सब जग के।
सबकी तू गति, अहै पथिक सब तेरे मग के॥
सुख दे! सुभ दे! बर दे! माँ! जो जन हैं तेरे।
बने रहैं निस बासर तव चरनन के चेरे॥
(11)
मातु आद्या शक्ति ज्योतिमय रूप तिहारो।
विश्व प्रकाशिनि सब दिक है तेरो उजियारो॥
घोर तिमिर को पुंज चीर यह जगत दिखायो।
अंधकार महं परे हमें कछु समझ न आयो॥
जब कछु समझन चहें तबहि अति जी घबरावै।
बिना तुम्हारी दया कौन यह भेद बतावै॥
- पुस्तक : गुप्त-निबंधावली (पृष्ठ 610)
- संपादक : झाबरमल्ल शर्मा, बनारसीदास चतुर्वेदी
- रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
- प्रकाशन : गुप्त-स्मारक ग्रंथ प्रकाशन-समिति, कलकत्ता
- संस्करण : 1950
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