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दोस्त

dost

विष्णु खरे

और अधिकविष्णु खरे

    एक नौजवान पुलिस सब-इंस्पैक्टर से दोस्ती करो।

    तुम देखोगे कि यह कठिन नहीं है—अपने सिद्धांतों की रक्षा करते हुए भी

    यह संभव है। तुम पाओगे कि तुम्हारी ही तरह

    वह गेहुँआ और छरहरा है, उसे टोपी लगाना और वर्दी पहनना

    पसंद नहीं है

    और वह हॉस्टलों, पिकनिकों और बचपन के क़िस्से सुनाता है—

    तुम्हें इसका भी पता चलेगा कि उसने सर्किल इंस्पैक्टर से कहकर

    अपनी ड्यूटी वहाँ लगा ली है जहाँ लड़कियों के कॉलिज हैं

    और हरचंद कोशिश करता है कि बुश्शर्ट पहनकर वहाँ जाए

    और रोज़ संयोगवश बीच रास्ते में उसी स्पैशल को रुकवाकर बैठे

    जिसमें नौजवान गर्म शरीर सुबह पढ़ने पहुँचते हैं। उससे हाथ मिलाने पर

    तुम्हें उसकी क़रीब-क़रीब लड़कीनुमा कोमलता पर आश्चर्य होगा।

    ज़िला सरहद पर

    तैनात किए जाने से पहले एकाध बियर के बाद

    जब वह अपनी किशोर आवाज़ में

    दो आरजू में कट गए तो इंतज़ार में नुमा कोई चीज़ पढ़ेगा

    तो तुम कहोगे—कुछ भी कहो, तुम इस लाइन में ग़लत फँस गए हो।

    लेकिन दो तीन-बरस बाद तुम अचानक पहचानोगे

    कि सड़क जहाँ पर रस्से लगाकर बंद कर दी गई है

    और लोग साइकिलों पर से उतरकर जल्दी-जल्दी जा रहे हैं

    और तमाशबीनों की क़िस्तों को बार-बार तितर-बितर किया जा रहा है

    पास एक की दूकान से बैंच उठवा कर वह वर्दी में बैठा हुआ है

    टेबिल पर टोपी और पैर रखकर।

    तुम कहोगे कि उसकी हैल्थ शानदार हो गई है

    जबकि ऊपर उठ आए गलों के ऊपर स्याह हलक़े पड़ गए हैं

    और पेट और पुट्ठों के अप्रत्याशित उभारों पर कसी हुई पोशाक में

    वह यत्नपूर्वक साँस ले रहा है। उसकी बग़लें

    कलफ़ और पसीने से चिपचिपा रही हैं

    और माचिस की सींक से दाँत कुरेदते हुए वह

    उसे बार-बार नाक की तरफ़ ले जा रहा है। सियासत

    और बड़े लोगों की रंगीन रातों की कुछ अत्यंत

    गोपनीय बातें बताते हुए वह उस समय एकाएक चुप हो जाता है

    जब सड़क के उस ओर दूर पर भीड़नुमा

    कुछ नज़र आता है

    और मेहनत के साथ वह उठते हुए कहता है

    अच्छा, अब तुम बढ़ लो, ये मादरचोद रहे हैं।

    शाम रात में बदल रही होती है जब तुम मुड़कर देखते हो

    कि वह तुम्हें बिल्कुल भूल चुका है

    पेट से निकली हुई गैस या दाँत से निकले हुए रेशे की तरह

    और कुछ कह रहा है

    पिछले हफ़्ते धुली हुई वर्दियों में तैनात एक से चेहरे वाले अपने मातहतों से

    जिनके हाथों में बाँस के हथियार कभी-कभी काँपते हैं

    उस एरियल की तरह

    जो दाईं और कुछ दूर उस पेड़ के नीचे अदृश्य होने की कोशिश करती हुई

    नीली मोटर पर हिलता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पिछला बाक़ी (पृष्ठ 70)
    • रचनाकार : विष्णु खरे
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1998

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