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दोष नहीं, भूल नहीं

dosh nahin, bhool nahin

अनुवाद : हरिशंकर शर्मा

प्रथमनाथ बिशी

प्रथमनाथ बिशी

दोष नहीं, भूल नहीं

प्रथमनाथ बिशी

और अधिकप्रथमनाथ बिशी

    आज यदि भूल जाऊँ निषेध तुम्हारा

    (यह क्या मेरा दोष सखि, यह क्या मेरा दोष)

    लाज के बंधनों को यदि आज तोड़ दूँ

    (यह क्या मेरा दोष सखि, यह क्या मेरा दोष)।

    पौष के स्वर्णिम आलोकपूर्ण खेतों में

    आकाश के बाहु जहाँ धरती को छूते हैं

    दृष्टि डालो उस ओर—वहाँ नहीं तनिक भी अंतराल।

    (यह क्या मेरा दोष)।

    आज यदि और भी काली जान पड़े तुम्हारी आँखें

    (यह क्या मेरी भूल सखि, यह क्या मेरी भूल)

    अधरों पर उदार हाथ बना रहे साकी

    (यह क्या मेरी भूल सखि, यह क्या मेरी भूल)।

    यह जो चाँद के रस से मतवाली पृथ्वी

    स्फुरित होती बार-बार जिसकी क्षीण नीबी

    जान लो, जान लो : सखि, वह नही एकाकी।

    (यह क्या मेरी भूल)।

    आज यदि और भी घनी जान पड़े तुम्हारी भौंहे

    (इसके लिए क्या मेरे नयन दायी, क्या मेरे नयन)

    रंग में रस में बिखेर रहा है अगरु तुम्हारा केशपाश,

    (इसके लिए क्या मेरे नयन दायी, क्या मेरे नयन)।

    वह श्याम गिरिचूड़ा देती किसका आभास?

    वनलेखा ने पहनाया उसको नील बास

    कह सकता कौन, कहाँ कामना का आरंभ?

    (क्या मेरा दोष?)

    क्यों बिखराता अबीर परिधान तुम्हारा?

    (यह क्या अकारण ही सखि, यह क्या अकारण)

    नशे में विभोर हैं कवि के नयन दोनों!

    (यह क्या अकारण ही सखि, यह क्या अकारण)!

    दृष्टि डालो वन-वन में यह कैसा समारोह

    किंशुक सेमल शाल बिखेर रहे हैं मोह

    रतिविहीन मदन को कर रहे मत्त!

    (यह क्या अकारण!)

    आज यदि नयन तुम्हारे तज चपलता

    (यह क्या अनुमान भर, केवल अनुमान)

    मन से कानोंकान कहते कितनी बातें

    (यह क्या अनुमान भर, केवल अनुमान)।

    देखो आज चकवा-चकवी का परिचय

    कौन-सा आवेश किए दोनों को मुखर आज

    वायु के झोंके-झोंके में आज यह कैसी तरलता!

    (केवल अनुमान)

    तुम्हारी हँसी में क्यों झरते जूही के फूल,

    (यह किसका दोष सखि, यह किसका दोष?)

    दोनों नयन काले क्यों और अधर रातें

    (यह किसका दोष सखि, यह किसका दोष?)

    जल में थीं लहरें मुखर नदी के

    उस पार का वन था झिल्लिबघिर

    ऐसे समय ऐसी जगह होती ही है भूल।

    (होती ही है भूल।)

    तुम मनोरम सखि धरा मनोहर

    (क्यो ऐसा संयोग, ऐसा संयोग)

    किस कारण दोनों ने मिल किया यह षडयंत्र!

    (क्यों ऐसा संयोग, ऐसा संयोग)।

    जाल बिछाकर विहग फाँसना और दोष देना उसको

    समझ नहीं आता यह कैसा है न्याय

    समझ नहीं आता तुम अपनी हो कि पर?

    (यह कैसा संयोग )

    नहीं भूल नहीं दोष, यह ठहरा यौवन

    (किसका दोष किसकी भूल रहने दो यह विचार)

    एक ही जाल में फँसा दोनों का मन

    (किसका दोष किसकी भूल रहने दो यह विचार)।

    खींचो तुम एक ओर और मैं दूसरी ओर

    उतना ही कठोर हो कसता जाता बंधन

    कौन जानता था कि वेदना मधुर इतनी?

    ( रहने दो यह विचार)

    कौन जानता था कि प्रेम प्रखर तलवार

    (कौन जानता था, सभी चाहते अनजाने)

    हँसी में हुई प्रखर दोनों ओर धार

    (कौन जानता था, सभी चाहते अनजाने)।

    हृदय से झरती बूँदें तरल शोणी की,

    अधरों पर बनाए रखती रेखा हँसी की

    प्रेम की है धार प्रखर और मूँठ सुनहरी।

    (कौन जानता था हाथ)

    दोनों का है दोष एक और एक ही भूल

    (यह नहीं अनुमान और केवल अनुमान)

    बिंधा दोनों के एक ही वेदना का शूल

    (यह नहीं अनुमान और केवल अनुमान)।

    प्रखर दाह में गलकर दोनों के मन ने

    युगल देह-संपुट में किया है सृजन

    वाणीमय एक मुक्ता-फूल।

    (यह नहीं अनुमान और अनुमान)।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 515)
    • रचनाकार : प्रथमनाथ बिशी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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