डोला लिए चलो तुम झटपट, छोड़ो अटपट चाल, रे,
सजन-भवन पहुँचा दो हमको, मन का हाल-विहाल, रे;
एक
बरखा ऋतु में सब सहेलियाँ मैके पहुँचीं आय, रे;
बाबुल घर से आज चलीं हम, पिय-घर, लाज बिहाय, रे;
उनके बिन, बरसाती रातें कैसे करें अचूक, रे?
प्रिय की बाँह उसीस न हो तो मिटे न मन की हूक, रे,
डोले वालो, बढ़े चलो तुम आया संध्या-काल, रे,
सजन-भवन पहुँचा दो हमको, छोड़ो अटपट चाल, रे।
दो
ढली दुपहरी, किरनें तिरछी हुई, साँझ नजदीक रे,
अभी दूर तक दीख पड़े है, पथ की लम्बी लीक, रे,
आज साँझ के पहले ही तुम, पहुँचा दो पिय-गेह, रे,
हम कह आई हैं इंदर से, रात पड़ेगा मेह, रे,
घन गरजेंगे, रस बरसेगा होगी सृष्टि निहाल, रे,
डोला लिए चलो तुम जल्दी, छोड़ो अटपट चाल, रे।
तीन
बाबुल घर में नेह भरा है; पर वाँ द्वैत विचार है, रे
साजन के नव नेह-सलिल में है अद्वैत-विहार, रे,
हृदय हृदय से, प्राण प्राण से, आज मिलें भरपूर, रे,
पिय-मय तिय, तिय-मय पिय हों जब, तब हाँ संभ्रम दूर, रे,
दूर करो पथ के अंतर का यह अटपट जंजाल, रे,
डोले वालो, बढ़े चलो तुम, आया संध्या-काल, रे।
चार
घन गरजे, तब हो न सजन-आलिंगन का संयोग, रे,
तो फिर कैसे मिट सकता है, हिय का अतुल वियोग, रे?
जब झनकारें अमित झिल्लियाँ, हो दादुर का शोर, रे
तब हम हुलस कहेंगी उन से : तुम्हारा ओर न छोर, रे,
डोले वालो, कोयल कुहकी हरित आम की डाल, रे,
सजन भवन पहुँचा दो हमको आया संध्या-काल, रे।