कविता
kawita
मैं डुग्गर का गीतकार हूँ,
डुग्गर देश का हर गोशा,
मेरी लय का शीशा।
इस धरती के पत्थर-पर्वत,
दूर ऊपर आकाश में उड़ते बादल,
कोस-कोस पर कंढी प्यासी,
लंबे सफ़र,
चील, बनेसर, आम, फलाही
तलवार की धार पर
चलते-चलते उमर बीत गई
पर किसी भी सोच का हुआ न अंत
गीत अति कोमल
मैं डुग्गर का गीतकार हूँ
आज भी पर्वतों की गोद में
ज़ुल्म कुकरमुत्ता-सा
स्वयं उगता।
बैल खो गए, बुगदु छीना
सूद कभी नहीं चुकता
कुम्हार की कच्ची मिट्टी
ताने-बाने, उलझाव, लकीरें
जीवन एक पहेली जिसे
कौन बूझे, कौन जाने
मैं डुग्गर का गीतकार हूँ
कचनार के पेड़-सी
थर-थर काँपती नार छबीली
बावड़ी-बावड़ी पानी भरती
रूप, यौवन, धूप-तमाशा
दूर मायका
अश्रु-अश्रु मरता सूखता
कांत कहीं परदेस में फिरता
कौन पूछे, कौन मन की जाने
मैं डुग्गर का गीतकार हूँ।
छाँव पीपल की,
दूर कहीं पंचों की बैठक
छोटे-छोटे गुनाहों के बदले
झाड़, सज़ा
उसके खेत में पानी लगता
हम नहीं मानते,
पेड़ों के अंदर साँप, नेवले
एक-दूसरे की जिह्वा चाटते
मैं बोलूँ तो पापी कहाऊँ,
इस धरती के पंच सयाने
मैं डुग्गर का गीतकार हूँ।
बनेसर : देवदार और उसकी जाति के पेड़ों को छोड़ दूसरे पेड़ों की लकड़ी।
फलाही : डुग्गर का एक प्रसिद्ध पेड़ जिसकी दातुन काम आती है।
बुगदु : मशीन में चावलों को पॉलिश करते समय निकलने वाला आटे जैसा पदार्थ।
- पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 154)
- संपादक : ओम गोस्वामी
- रचनाकार : यासीन बेग
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2006
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