प्रेमचंद की एक कहानी और एक अज़ीज़ दोस्त की याद
एक
यह इत्तेफ़ाक़ की बात थी
कि हमारा नाम हीरा और मोती नहीं था
ज़ाहिरन हम किसी क़िस्से का
किरदार होने के क़ाबिल नहीं थे
वैसे भी हम कोई पैदाइशी बैल तो थे नहीं...
अपनी बुनियादी और मुख़्तलिफ़ ज़रूरतों से
बंधे दो बेहद मामूली आदमी थे हम
लेकिन किसी ज़माने में हमारी दोस्ती
हीरा और मोती से कमतर भी नहीं थी
और कमोबेश उतनी ही गहरी और पक्की
कि रश्क कर सकें लोग हमसे...
जीवन के किसी अक्षांश पर जब हम मिले थे
तब हम दरअसल दो बैल ही थे
मेहनत करने की नियति लेकर जन्मे,
उनकी ही तरह निष्कलुष और संशयमुक्त
हालाँकि हम किसी कोल्हू या गाड़ी,
या फिर हल में जुतने के लिए अभिशप्त नहीं थे
हमारी गरज़ पेट की भूख और रात की नींद से
ज़्यादा कुछ ख़ास थी भी नहीं
हम तो अपने ही जैसे अनगिनत दूसरे
कामगारों की तरह बाज़ार के बैल थे
हम जीवन के दो विपरीत ध्रुवों से आए
दो अलग-अलग मिटटी क बने शख़्स थे...
मुझे सर्दियों की शाम वोदका पीते हुए
राग यमन सुनना पसंद था
और बारिश के दिनों में भींगते हुए
फ़ैज़ या साहिर को गुनगुनाना...
उसे दुनिया की सख़्त-खुरदरी और तपी हुई
ज़मीन पर नंगे पाँव चलने की आदत थी
इतवार की दुपहर जब मैं
अपनी पसंदीदा किताब के पन्ने पलटता रहता
उस वक़्त वह अस्पताल में अपने
किसी बीमार पड़ोसी के सिरहाने बैठा होता...
वह किसी बच्चे की तरह साफ़गो था...
तबियत से ख़ालिस फ़क़ीर
ज़हीन लोगों की संजीदा और बनावटी
दुनिया में जैसे सांँस घुटती थी उसकी
हैरत की बात थी हम दो बेमेल आदमी थे...
अपने-अपने संतापों के सिवा
हमारे पास कुछ भी नहीं था एक जैसा
दो
आप बेशक इस बात पर ताज़्जुब कर सकते हैं
लेकिन दोस्ती हमारी अकूत दौलत थी
जिसके नशे में बेफ़िक्र खरच रहे थे
हम अपनी ज़िंदगी के साल-दर-साल
अपनी रतजगों में जब हम
अपने नाकाम प्रेम के क़िस्से साझा करते होते
तब यह भूल जाते थे कि अपनी-अपनी
खानादारियों में डूबे दो दुनियादार लोग थे हम
जिनकी आँखों के नीचे झुर्रियाँ
और कनपटियों पर सुफ़ेदी छाने लगी थी अब
एक-दूसरे के बारे में हम
एक-दूसरे से ज़्यादा जानते थे,
एक अरसे तक हमें इसी बात का भरम रहा
लेकिन यह फ़क़त हमारी ख़ुशफ़हमी थी...
हमारी दोस्ती का रंग जिन दिनों अपने शबाब पर था
ठीक उन्हीं दिनों कहीं गिर पड़े थे
वे मुखौटे अचानक एक रोज़,
जिनके पीछे छुपा रखी थीं हमने
अपनी-अपनी शातिर शक्ल
यह हादसा दरअसल तब हुआ
जब बरसों-बरस बाज़ार में घूमते-घूमते
एक रोज़ दाख़िल हो गया बाज़ार हमारे भीतर
और हमें इसका अहसास तक नहीं हो पाया
कब हम दोस्त से साझीदार हुए पता नहीं
फिर मुक़ाबिल खड़े हो गए एक-दूसरे के ही
इस तरह धीरे-धीरे हमारे दोस्ती के पाँव
हैसियत की सूखी-गर्म रेत पर लड़खड़ाने लगे...
बाज़ार के कोलाहल ने पहले तो आखेट किया
हमारे रिश्तों के लम्स की गरमाहट का
और फिर धकेल दिया हमारी यारबाशी के
दिनों को ज़िंदगी के सीमांत के पार
एक रोज़ फ़क़ीर से दिखने वाले
मेरे यार ने हौले से छुआ मेरी हथेली को
और हम मुड़ गए जीवन की
दो विपरीत धाराओं की ओर हमेशा के लिए...
‘फ़ालतू की यारी खानाख़राबी है प्यारे...’
गोया जाता-जाता कहता गया वह
हमारी आत्मीयता के इस क्रूर-त्रासद अंत
और बिखरी-विछिन्न स्मृतियों के बीच
इसी शहर की रगों में रुधिर की तरह
आज भी भटकते फिरते हैं हम सुबह से रात तक...
उन दो अजनबियों की तरह
जो पहले कभी मिले ही नहीं थे
ज़िंदगी की गर्म-खुरदरी ज़मीन पर चलने वाला
किसी ज़माने का मेरा वह दोस्त
अब गाहे-बगाहे ही उतरता है
अपनी शानदार चमकती हुई गाड़ी से
जिसके कूलबॉक्स में भरी होती हैं
सोडा और स्कॉच की महँगी बोतलें...
उसकी शामें सुनी है, इन दिनों शहर के
रसूखदार और नफ़ीस लोगों क साथ गुज़रती हैं
क्या अब भी वह किसी बीमार परिचित
को देखने जाता होगा अस्पताल!
मैंने भी तो कब का छोड़ दिया राग यमन सुनना
बाज़ार का शोर ही अब मुझे
किताब और संगीत सा आनंद देता है
बेसुध हो जाता हूँ मैं
सिक्कों की खनक सुन कर
हम बेशक आज अपनी-अपनी
दुनिया में राज़ी और मसरूफ़ हैं
लेकिन क्या वह अब भी मुझे
कभी याद करता होगा,
ठीक उसी तरह जिस तरह से मैं करता हूँ उसको!
क्या उसके ज़ेहन में भी ज़िंदा होगी
उन साथ गुज़ारे दिनों की ख़लिश!!
कितने नाराज़ और मायूस दिखते हैं
फ्लाईओवर के वे सूने फुटपाथ...
रेल कॉलोनी का वह घना नीम... हाईवे का ढाबा...
और शहर के वे तमाम चोर रास्ते
जो हमारे पुराने दिनों की
सरगोशियों के बेज़ुबान गवाह रहे थे
आज वे सब के सब हम पर
तानाकसी करते मालूम पड़ते हैं जैसे कहते हों
कि इससे बेहतर तो हम दो बैल ही होते
हमारी आदमीयत ने ही मरहूम कर दिया
और हम एक कहानी बनते-बनते रह गए!
- रचनाकार : प्रभात मिलिंद
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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