दिव्य प्रेम
diwy prem
दिव्य प्रेम की अनुभूति में वे मारी गईं
जलते कोयले उन पर गिरे
फिर भी नहीं वे चिल्लाईं
छत पर रहीं देखतीं तारे
उन्हें गिनकर जैसे उठीं
वर्तमान से टकराईं
चली गईं कहीं शहर में दूर
वे इस संसार का प्रेम करना शायद नहीं चाहती थीं
इसलिए फट गई उनकी साड़ी
ब्लाउज़ के रंग फीके पड़ गए
उन्हें किसी ने पुकारा नीचे से
वे दौड़ती चली आईं ढूँढ़ती रहीं
अपनी छाया उस पुरुष में
वे उससे पूछती रहीं : तुम हो कौन?
और वे उसी रहस्य में फँस गईं
संयोग से नहीं निकला उन्हें किसी ने बाहर
जब वे खिड़की से बाहर झाँकती थीं
धरती के नीचे जैसे कुछ देखती थीं
वे दिव्य प्रेम की अनुभूति में थीं
वे नहीं जान सकीं क़ायदे-क़ानून
उन्हें नहीं मालूम था समय पर क्या खाना चाहिए
इसलिए उनके बाल झड़ते रहे
वे दुबली होती गईं
वे किताबें पढ़-पढ़कर आँखें फोड़ती रहीं
फिर भी अनपढ़ कहलाईं
वे अकेले में ख़ुद से बातें करती रहीं
अँधेरे में कल्पना में पुरुषों को चूमती रहीं
लेकिन जीवनसाथी नहीं चुन सकीं
उनकी ढलती उम्र पर सब फ़ब्तियाँ कसते रहे
वे एक ग़रीब पिता की बेटी थीं
दिव्य प्रेम ही कर सकती थीं
उसकी अनुभूति में उनके स्तन सूखते गए
पीला पड़ गया चेहरा सपने बिखर गए
वे अपने बच्चे के लिए
छाती में दूध भी नहीं बचा सकीं
और किसी को पता भी नहीं चला इस शहर में
उनकी साँस अभी नहीं उखड़ी है
उनकी नाड़ी चल रही है
उनके कुछ ख़त मिले हैं
वे अभी भी ज़िंदा हैं किसी जादुई शीशे में
बंद राजकुमारी-सी
- पुस्तक : सपने में एक औरत से बातचीत (पृष्ठ 11)
- रचनाकार : विमल कुमार
- प्रकाशन : आधार प्रकाशन
- संस्करण : 1992
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