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दिवस-रात

diwas raat

अनुवाद : रामसिंह चाहल

जसवंत ज़फ़र

जसवंत ज़फ़र

दिवस-रात

जसवंत ज़फ़र

और अधिकजसवंत ज़फ़र

    रात की कोख से पैदा होता

    चहकता, महकता, दहकता

    सुनहरा दिन

    वक़्त से दिन बड़ा होता

    माँ से सुदूर होता रहता

    अच्छी-बुरी जगह भटकता

    कुकर्म करता

    कितने ही झूठ बोलता

    व्यर्थ का भ्रमण करता

    थक जाता, हार जाता

    टूट भी जाता

    चेहरा लटकाए

    शाम के द्वार पहुँचता

    श्वास माँगता

    पनाह ढूँढ़ता

    संध्या बाँहों के द्वार खोलती

    गिरते को बचाती, सँभालती, माथा पोंछती

    केशों में मुलायम अँगुलियों की

    कंघी फेरती

    होठों से आँखें चूमती

    आँखों से पूरी काया को प्यार करती

    सितारों की चुनरिया ओढ़ती

    चंद्रमा का तिलक लगाती

    दिन को अपने रंग में रंगती

    अंगों को आँकती

    कुँआरी संध्या

    रात सुहागन बनती

    लौ को कोख में सँभालती

    दिन सर्द शांत हो जाता

    उसकी लीला ख़त्म होती

    आँखें बंद कर लेता

    रात उदास हो जाती

    निराश होती

    लोरी गाती, कोख को पलोसती

    पुत्र जनमती

    मगर ख़ुद रहती

    नर्म-मुलायम दिन चढ़ता

    तमतमाता हुआ बड़ा होता

    अच्छी-बुरी जगह भटकता

    सौ कुकर्म करता

    ...

    ...

    बिल्कुल बाप पर जाता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : ओ पंखुरी (पृष्ठ 22)
    • रचनाकार : सुरजीत पातर
    • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
    • संस्करण : 2004

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