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दिहाड़ी पर

dihaDi par

नरेश चंद्रकर

नरेश चंद्रकर

दिहाड़ी पर

नरेश चंद्रकर

और अधिकनरेश चंद्रकर

    दिहाड़ी पर निकलने वाले आदमी की रीढ़ के

    दोनों ओर की नसें तनी हैं

    वे सख़्त होती चली गई हैं

    पिछले कई दिनों से इसने देखा नहीं है

    अपनी एड़ियों में आई दरारों को

    दरख़्त की छाल फिर भी ठीक है

    इस आदमी की हथेलियाँ हाथ मिला रही हैं

    चट्टानों से

    यह रोज़-रोज़ की नई नौकरी पर निकलता और

    नई नौकरी से लौटता आदमी है

    इसके पास भविष्य का गाढ़ा अँधेरा है

    बहुत सारे इन और

    उतनी सारी नौकरियों से भरा जीवन लिए

    यह आज सुबह मुझे दिखा

    मूँगफली खाते हुए

    जैसे कह रहा हो—

    आप क्या जानो मूँगफली खाना क्या है

    कितनी बेफ़िक्री से होता है

    मूँगफली खाते हुए दुनिया को देखना!

    स्रोत :
    • रचनाकार : नरेश चंद्रकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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