जब पूरी दुनिया
पाप और पुण्य के बीच
न्याय और अन्याय के बीच
धूमिल पड़ती जा रही विभेदक रेखा को
ढूँढ़ने की एक असफल कोशिश में लगी हुई थी और
जब भारत का वह एक अदना-सा आदमी
बग़ैर कोई समाचार सुने उस दिन भी
अपने सूखे पड़ चुके खेत पर बैठ
आसमान की आरे निहारने के लिए अपने घर से निकल चुका था
...कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे
कहते हैं जब शहंशाह सो रहे थे तब
सोने से पहले उनका निर्देश था
कि यदि दुनिया ठीक वैसी ही चलती रहे जैसा
उन्होंने उसे चलने के लिए छोड़ दिया है
और हवाएँ ठीक वैसे ही पूर्व से पश्चिम की ओर बहती रहें
तब उन्हें नींद से न जगाया जाए
जब तक वह भूखा आदमी
खींचता रहे रिक्शा
जब तक वह बेक़सूर झेलते-झेलते प्रहार
मान न ले अपने को क़सूरवार
और जब तक उनके शयनकक्ष के टेलीविज़न सेट पर
ढेरों मामूली आदमियों की गिनी जा सके हड्डियाँ
तब तक शहंशाह को नींद से न जगाया जाए
और उस दिन, उस पल
शहंशाह को जगाया नहीं गया क्योंकि
दुनिया ठीक वैसी ही चलती रही
हवाएँ ठीक उसी दिशा में बहती रहीं और
हम और आप ठीक वैसे ही हर दिन की तरह
बने रहे सिर्फ़ तमाशबीन
और शहंशाह सोते रहे
शहंशाह की यह नींद
उस पल, उस दिन, इस महीने, इस वर्ष की नहीं
इस सदी की सबसे सुकून भरी नींद है
इस सुकून के पीछे है एक शोर
और शोर को शांत करने की एक अजूबा तरकीब
इस सुकूने के पीछे है कई कराहें
क़ब्र और ढेर सारी चुप्पियाँ
लेकिन शहंशाह की यह सुकून भरी नींद इतनी गाढ़ी नहीं
कि इसकी तुलना की जा सके बिल्कुल चलताऊ मुहावरे में
रामायण के उस अदने से पात्र कुंभकर्ण की नींद से
जिन्हें जगाने के लिए बजाए जाएँ
ढेर सारे ढोल और नगाड़े
शहंशाह की यह नींद इतनी भी गाढ़ी नहीं है कि इसे
कहा जाए अर्धवार्षिक
और न ही इतनी गाढ़ी कि
इस नए ज़माने की यह एक मिसाल की बनकर उभरे
शहंशाह की इस नींद को तोड़ा जा सकता है
महज़ हवा की एक सरसराहट से
हवा की वह सरसराहट
जो उनके शरीर को छू भर जाए
और उस दिन सिर्फ़ उसका रुख़ पूर्व से पश्चिम की ओर न हो
शहंशाह की नींद को तोड़ा जा सकता है
महज़ एक छोटे से कंकड़ की उछाल से
जो गिरे जाकर सीधे शहंशाह की नींद में
अब यह जितना
सभ्यता और संस्कृतियों के टकराहट का समय नहीं है
उससे अधिक है यह नींदों के टकराव का
टेक्सस के उस आरामगाह में
सोते रहेंगे जब तक शहंशाह और जब तक
बने रहेंगे हम शहंशाह की नींद के पहरेदार और
जब तक करते रहेंगे हम
उनके नींद से जगने की प्रतीक्षा
तब तक छीजती रहेगी
बूँद-बूँद कर हमारी मानवता
और तब तक ढूँढ़ते रहेंगे हम वह फूल
जिसमें वही रंग और वही ख़ुशबू हो
जो उसकी अपनी है।
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*जब सद्दाम हुसैन को फाँसी दी जा रही थी तब बुश सो रहे थे।
- रचनाकार : उमाशंकर चौधरी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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