फेंकना निहायत राजनीतिक कर्म है

phenkna nihayat rajnitik karm hai

अमित धर्मसिंह

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फेंकना निहायत राजनीतिक कर्म है

अमित धर्मसिंह

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    फेंकू ने जब फेंकना शुरू किया

    तो बहुत-सी चीज़ें फेंक दी सीमा के पार।

    सबसे पहले फेंकू ने

    अपने भीतर बसी स्त्री को फेंका

    उसके साथ फेंकी सप्तपदी,

    सात जन्मों का साथ फेंका,

    सुख दुख के वादे फेंके,

    निबाह की क़समें फेंकी,

    तीन तलाक़ का मसीहा

    पचा नहीं पाया जीवन में स्त्री,

    उसने उल्टी की तरह उगल दिया

    स्त्री के वजूद को,

    अर्धनारीश्वर का भगत बनकर भी

    काटकर फेंक दिया अपने अर्धांग को

    और बचा रह गया पुरुष

    केवल एक पुरुष।

    जिन सत्तर सालों में फेंकू जन्मा,

    पला, बढ़ा, पढ़ा और नेता बना,

    उसने उन सत्तर सालों को

    बदनामी की खाई में फेंक दिया,

    उसने सत्तर सालों की

    किसी भी उपलब्धि को याद नहीं रखा।

    वह भूल गया कि वह ख़ुद भी

    उन्हीं सत्तर सालों की देन है।

    वह भूल गया

    जिस आज़ाद भारत में उसने फेंकना शुरू किया

    उसमें फेंकने का अधिकार

    उन्हीं सत्तर सालों के पूर्वजों से पाया,

    वह भूल गया

    जिस देश, देश, देश को वह

    तोते की तरह रटता है,

    जुमले की तरह फेंकता है देश-विदेश में,

    वह देश उन्हीं सत्तर सालों के पूर्वजों ने

    पाल-पोसकर बड़ा किया है।

    मगर उसने अपने और देश के होने में

    सत्तर साल के योगदान को

    जड़ से उखाड़कर फेंक दिया,

    महत्त्वाकांक्षाओं के पार।

    वह संघ से जुड़ा

    तो सामाजिक न्याय और एकता को

    फेंक दिया विचारधारा से बाहर,

    वह पार्टी से जुड़ा

    तो बहुत से नेता फेंक दिए

    प्रभाव से बाहर,

    वह राजनीति से जुड़ा

    विपक्ष को फेंक दिया,

    लोकतंत्र के बाहर,

    वह लोगों से जुड़ा

    तो उनके मुद्दे फेंक दिए

    राष्ट्रवादी दलदल में।

    वह संविधान से जुड़ा

    तो आरक्षण और धर्मनिरपेक्षता

    फेंक दी संविधान से बाहर।

    वह गांधी से जुड़ा

    तो सत्य, अहिंसा, प्रेम

    फेंक दिए आचरण के बाहर।

    अभी वह मुसलमानों को

    फेंक देना चाहता है देश के बाहर,

    दलितों को फेंक देना चाहता है

    असमानता के दहकते लावे में।

    वह देश को

    फेंक देना चाहता है

    कॉर्पोरेट की गोद में,

    इसके लिए वह बहुत कुछ फेंक चुका है,

    बहुत कुछ फेंक रहा है,

    अभी बहुत कुछ फेंकेगा।

    उसे रोका नहीं जा सकता,

    उसे समझाया नहीं जा सकता,

    उसे मनाया नहीं जा सकता,

    उसको फेंकते रहना है,

    फेंकते जाना है, फेंकते जाना है,

    उसके लिए चरैवेति, चरैवेति का सिद्धांत

    फकैवेती, फकैवेती है

    फेंकने से वह

    ख़ुद भी ख़ुद को नहीं रोक सकता

    क्योंकि फेंकना उसका स्वभाव नहीं

    निहायत राजनीतिक कर्म है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अमित धर्मसिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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