यहाँ आबाद है पूर्व
पश्चिम के सूर्य के आगे
तुम धूप में जलते दीपक हो
इसलिए भला कितनी देर और
अपनी लौ का त्योहार मनाओगे
कितनी देर और
इसकी किरणों से टकराओगे!
वैसे तो मैं भी पूर्व का ही जाया
मेरे रेतीले पाँवों तले
पश्चिम का दरिया बहता है
मैं भी बार-बार अपनी नौका का जायज़ा लेता
क्या मालूम अनायास कब
तेज़ धार मंद पड़ जाए अपनी
और मुझे कानों-कान ख़बर न हो
यों अडिग वृत्ति को देख
तुम्हारे विश्वास के द्वार पर
अदब में सिर झुकाता हूँ मैं
लेकिन तुम समय की बहती जलधारा पर
निज हस्ताक्षर करते कितने अनभिज्ञ
अपने छिद्रों में से बहते-फिसलते
कितने बेख़बर
कि तुम्हें पता ही नहीं
पश्चिम के तेज़ सूर्य में
कैसे धरे रह गए तुम्हारे
अपने ख़ून की लौ में भाव
घर को उजलाने के मनसूबे
अपनी कोख के परिंदों को
निज हथेली पर उड़ाने के इरादे
तुम्हें नहीं मालूम!
कि कैसे तुम्हारी बंद खिड़कियों, दरवाज़ों से
इसकी प्रत्येक किरण भीतर आ बैठी
तुम्हारी उठती फैलती लता को
अपने गमलों में रोपती, सजा गई
तुम्हें, अकिंचन को, बेदख़ल करके
घर की दहलीज़ से चिपका गई
तुम्हें मालूम ही नहीं
तुम खोजते ही रहो
अपने घर की चारदीवारी में
लुप्त हो रहे निज गीतों को
अंतिम हुँकार भरता कोई बोल
अपने मिटते मद्धम रंगों का
कोई अंतिम उजला रूप
धुँधले चेहरे का
कोई बचा हुआ अंतिम साया
खोजते रह गए तुम
पराजय के किस मुक़ाम पर
तुम्हारे हरेक विकास का भय
जब टूटता, गिरता है
तुम्हारे हरेक बैरियर का लोहा
जब पिघलकर बिछ गया
इसकी हर सड़क पर तारकोल-सा
पश्चिम के सूर्य के आगे
दीपक की तरह जलते हुए
पूर्व कितनी देर और
अपनी लौ का उत्सव मनाओगे
भला कितनी देर, कब तक...।
- पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 337)
- संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2014
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