धर्म, अधर्म और करुणा की कविता
dharm, adharm aur karuna ki kawita
धर्म की कविता
मैं तर्कों के क़िले में नहीं,
आस्था के घर में रहता हूँ
यह घर मेरा शाप भी है और मेरा वर भी है
इंसान के मायने बताता हूँ और विज्ञान के ताने सहता हूँ
उसने मुझे बार-बार साबित किया झूठा
बार-बार बताया अधूरा
लेकिन मन की जिस कंदरा में मैं बैठा हूँ
उसमें अंधकार बहुत गहरा है
सारे तर्क इस अंधकार में आकर खो जाते हैं
सारी पूर्णताएँ यहाँ आकर ख़ुद को बेबस पाती हैं
यहाँ सिर्फ़ मैं जलता रहता हूँ एक लौ की तरह
यह मेरी अलौकिकता है जो मेरा आभामंडल बनाती है
यह मेरी रहस्यमयता है जो मुझे बचाए रखती है
मैं कमज़ोर आदमी की उम्मीद का लोक हूँ
और किसी ताक़तवर के विशेषाधिकार का श्लोक हूँ
जिन्हें सत्ता चाहिए, वे करते हैं मेरा इस्तेमाल
कभी हथियार की तरह, कभी बनाकर ढाल
वे बार-बार राष्ट्र की दुहाई देते हैं,
वे बार-बार धर्म का जाप करते हैं
इंसान ही नहीं, देवता भी उनसे डरते हैं
धर्म में जो कविता और करुणा होती है,
उसे वे निकाल फेंकते हैं
धर्म में जो उन्माद की गर्मी होती है,
उसे वे सबसे ज़्यादा सेंकते हैं
इस उन्माद के आगे सहज आस्था पानी भरती है
इस धर्म की मारी मनुष्यता काँपती-थरथर करती है
मैं थोड़ा-सा होता तो शायद जीवन का नमक होता
उसका ज़ायका बढ़ाता
लेकिन मैं बहुत ज़्यादा हूँ,
इतना ज़्यादा कि ज़हर हो गया हूँ
संस्कृति की लहर की तरह शुरू हुआ था,
अब सभ्यता का कहर हो गया हूँ।
अधर्म की कविता
मैं ठहाके लगाऊँ तो कृपया नाराज़ न होंगे
नाराज़ भी होंगे तो क्या बिगाड़ लेंगे
इन दिनों हर जगह मेरी चलती है
मैं हर जगह घुसा बैठा हूँ
यहाँ तक कि आपके भीतर भी
क्या आपने ख़ुद को टटोल कर देखा है कभी?
मेरा कोई मंदिर नहीं है,
लेकिन हर मंदिर में मैं बैठा हूँ
मेरा कोई पुजारी नहीं है,
लेकिन हर पुजारी के भीतर पैठा हूँ
मेरा कोई पंथ नहीं, मठ नहीं
लेकिन कौन-सा मठ और पंथ मुझसे परे है
जिस ईश्वर को आप निराकार बताते हैं
उससे ज़्यादा निराकार हूँ मैं
और जिसे सगुण-साकार बताते हैं,
उससे ज़्यादा साकार हूँ मैं
राजनीति मेरी प्रदक्षिणा करती है
इतिहास मेरा अनुसरण करता है
मुझे मिटाने के नाम पर देवता लेते हैं अवतार
लेकिन क्या वे मुझे मिटा पाते हैं?
मैं मंदिर बनाता हूँ,
मैं मस्जिद ढहाता हूँ
मैं बच्चों को उनके स्कूलों में घुसकर मार डालता हूँ
और यह सब करते हुए नाम धर्म का लेता हूँ
मैं किसी से नहीं डरता
थोड़ी-सी करुणा के सिवा
जिस पर अक्सर मेरा वश नहीं चलता
मैं किसी से नहीं दबता
थोड़े से सच के सिवा,
जो बार-बार कुचला जाता है,
लेकिन न जाने लौट कर कहाँ से चला आता है
अपने अमरत्व पर मेरा अभिमान ऐसे ही क्षणों में लड़खड़ाता है
थोड़ी-सी करुणा और थोड़ा सा सच मेरे फैलाए
अँधेरे में दीपक की तरह जलते हैं
जो उजालों तक ले जाएँ,
वे रास्ते मुझे खलते हैं।
करुणा की कविता
मैं करुणा हूँ
सबसे ज़्यादा चोट सहती हूँ
फिर भी बची रहती हूँ
क्रूरताओं के हिस्से होते हैं उनके अट्टहास
दुख के पास होती है उसकी चुप्पी
महत्वाकांक्षाओं के पास
होती है उनकी चालाकी
क्रोध के पास होता है
उसका व्यंग्य
धर्म के पास होती है
उसकी व्याख्या
लेकिन मेरे पास कुछ नहीं होता
अपने घुप्प अँधेरे के सिवा
जो लगातार और गाढ़ा होता जा रहा है
कई बार तो मेरे वजूद का आभास तक नहीं होता
लगता है, उस पर कितनी पपड़ियाँ जम गई हैं
लेकिन प्राण के किसी अतल में
न सुनाई पड़ती धुकधुकियों के बीच
निस्पंद सोई मैं
अचानक किसी मर्मचोट से जाग उठती हूँ
और तब सिर उठाती है मेरे भीतर से मेरी वह एक नामालूम-बेख़बर ज़िद
जो किसी से नहीं डरती,
मृत्यु से भी नहीं,
अपमान से भी नहीं,
भगवान से भी नहीं
वही मैं हूँ,
मनुष्यता का वह कवच
जो धर्म-अधर्म के बीच, सत्य-असत्य के बीच
अस्था-अनास्था के बीच
तर्क और विवेक के बीच
बचाए रखता है
एक धागा
जिसके सहारे रोज़-रोज़ सिली जाती है रोज़-रोज़
जीवन की तार-तार होती चादर।
मैं करुणा हूँ
जीवन में जल की तरह बची रहती हूँ।
- रचनाकार : प्रियदर्शन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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