सबसे पहले हम मुख्य अतिथि के आभारी हैं
जो न आते तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
फिर उन सभी गणमान्य उल्लू के पट्ठों के
जो अपनी हरकतों की वजह से इस क़ाबिल हुए
फिर अलग-अलग साइज़ और डिज़ाइन वाले विद्वानों के
जो मारे तनाव के शांत बैठे हैं
हम सभी अफ़सरों के आभारी हैं
और उनके चापलूसों के भी
सभी प्रोफ़ेसरों के
और उनके चापलूसों के भी
हम जलेबी के आभारी हैं
और उसके उद्गम के भी
हम अमीबा के आभारी हैं
वाइरस के बैक्टीरिया के
साढ़े दस प्रतिशत ब्राह्मणों के हम बहुत आभारी हैं
पौने साठ प्रतिशत दलितों के
दो सौ प्रतिशत से भी ज़्यादा पिछड़ों के
धरती, जल, अग्नि और वायु के
पत्थरों, वनस्पतियों, पशु, पक्षियों के
उनके अपने-अपने प्रतिशत के हिसाब से
हम मुसलमानों के भी उनके प्रतिशत के हिसाब से आभारी हैं
सामाजिक न्याय की बात करने वाले
सभी बलात्कारियों और व्यभिचारियों के तो
हम तहेदिल से शुक्रगुज़ार हैं
हम हर प्रकार के पिछड़ेपन के आभारी हैं
हर प्रकार के ओछेपन के
जो चुस्त मूर्खता और सत्ता के संयोग से पैदा होती है
उस टोपीदार मुस्कुराहट पर तो हम क़ुर्बान जाते हैं
हम शैतान की आँख के आभारी हैं
और उसके शातिर इशारों के भी
दारू पीकर गालियाँ बकते पत्रकारों
और सभी परजीवियों-बुद्धिजीवियों के भी हम बहुत आभारी हैं
हम धर्मनिरपेक्षता के शुरू से ही आभारी रहे हैं
और सांप्रदायिकता के भी
हम हर तरह की बयानबाज़ी के आभारी हैं
हम हर उस मौक़े के आभारी हैं
जब मक्कार आवाज़ें आती हैं—साथी हाथ बढ़ाना
जिसने हमें आज़ादी दिलाई
या फिर ग़ुलाम बना के छोड़ दिया
उस पार्टी के तो हम पीढ़ियों से आभारी रहे हैं
फिर अभी तो पार्टी शुरू हुई है
या हो ही नहीं पा रही
हम सभी तमाशों के आभारी हैं
सभी गोष्ठियों और उनमें भाग लेने वाले जोकरों के भी
सभी सूरमाओं के
जो भोपाल से बाहर भी सब जगह मिलने लगे हैं
हम सभी प्रकार की भर्त्सनाओं के आभारी हैं
सभी प्रकार के खंडनों के
जिन्होंने समय-समय पर हमारी संस्कृति के पेट में गुदगुदी मचाई है
उन तमाम सीत्कारों, फूत्कारों और हुंकारों के भी हम आभारी हैं
जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं
पिछड़े बने रहने की कभी न ख़त्म होने वाली होड़ के तो हम
जितना आभारी हों उतना कम है
और कोई छूट तो नहीं गया
हाँ, इससे पहले कि हम भूल जाएँ
सभी लोग ध्यान से सुनें
हम जासूस गोपीचंद के भी बहुत ज़्यादा आभारी हैं
प्रेमचंद और मोहनदास करमचंद का नाम हम जानबूझकर छोड़ रहे हैं
हम उन सबके आभारी हैं
जिनका हमें नहीं होना चाहिए
और अगर आप सोचते हैं
की इससे भी ज़्यादा एहसानमंद होना चाहिए हमें
तो हमारे पास अब कुछ बचा नहीं है
और अब हमें सोने दो चमगादड़ो,
सवेरे काम पर जाना है।
- रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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