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दुख

dukh

पटरी से उतरा हुआ जीवन लौटता ही नहीं फिर पटरी पर

मैं कहाँ-कहाँ से नहीं घायल हूँ

कितना बड़ा है दुर्भाग्य

हाथ-पाँव होकर भी हाथ-पाँव से नहीं लगते हैं

चिड़ियों का स्वर भीतर नहीं उतरता

भात में नहीं लगता है स्वाद

शिराओं में रक्त की जगह बेचैनियाँ दौड़ती हैं

मेरी भीतर की गिलहरी अंतिम साँसें गिनती है

घाव पर फूल नहीं खिलते

पीड़ाएँ खिलती है

कितनी तड़प है भीतर

कितनी आग

कितनी उदासी

कितना घना अंधकार

मैं उसमें हाथ-पाँव मारती हूँ

मगर हाथ तो कुछ नहीं आता

कितना लिखती हूँ दुख

पर कितना कम समाता है कविता में

इतनी पीड़ा लेकर कहाँ जाऊँ

कौन-सी धरती पर धरूँ पाँव

कौन-सा सीना है जो भींच ले मुझको पूरी काया समेत

मेरे आँसुओं में अपना नमक मिला दे

मेरी हथेलियों में अपनी हथेलियाँ

माँ के जैसा दुलार दे और लौटा दे मुझे मेरा पहले-सा मन

लौटा दे कि आसमान फिर से उजला दीखने लगे

पिछले बरस के उस दिनों जैसा

जब हवा के वेग से फरफराता था जीवन

और इंद्रधनुष मन में उतर आता था।

स्रोत :
  • रचनाकार : वियोगिनी ठाकुर
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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