देखो कितने अनभिज्ञ थे हम
dekho kitne anbhigya the hum
देखो कितने अनभिज्ञ थे हम
एक-दूसरे के होने से
जैसे अनभिज्ञ होती हैं चीटियाँ
अपनी अनैच्छिक मृत्यु से
हम पानी छूकर अपना
पत्थरपन धारण करते और
अपनी उभरी धारियों से काटते हुए
एक-दूसरे को तराश कर खोते रहे
हम दोनों एक साथ नहीं रहे
फिर भी पहचानते थे शून्य को
और हमारे स्वतुल्य संबंधों से
ये दर्पण भी ख़ार खाते रहे
हमारा मन एक के बाद एक
लासे-सा उठता
और बैठ जाता रहा
एक सीमित खिंचाव के पश्चात
फिर भी अपने-अपने विचारों के
दाएँ तथा बाएँ पक्ष में
अनभिज्ञ होते हुये भी
हम समान रूप से जोड़े जाते रहे
- रचनाकार : प्रतिभा किरण
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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