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देह की मेढ़

deh ki meDh

संध्या चौरसिया

संध्या चौरसिया

देह की मेढ़

संध्या चौरसिया

और अधिकसंध्या चौरसिया

    बंद कमरे में देह नग्न नहीं होती

    आईने के सामने ख़ुद को

    नग्न देखना नहीं होता अश्लील

    अश्लील होता है किसी की आँखों में

    देह का औचित्य विशेष देखना

    देह को सिर्फ़ देह देखना

    जैसे देह कोई धरती है

    जिसे सिर्फ़ फ़सल के लिए सींचा जाता हो

    इतिहास और मिथकों के सबसे बड़े युद्ध

    लड़े गए एक स्त्री की देह को

    पितृसत्ता की मेढ़ से को छेक लेने के लिए

    कोई कैसे एक रेखा पार कर

    पर पुरुष की ब्याहता उठा ले गया

    ब्याहता ने भी देह की मेढ़ बचाने को

    अपने चारों तरफ़ खींच ली आग की रेखा

    उसी आग में जलकर राख हो गए

    स्त्री-यौनिकता के तमाम प्रश्न

    जो नहीं खींच पाई आग की लकीर

    वह ख़ुद क़ूद गई आग के कुंड में

    जलती औरतों के देवी तुल्य किरदार

    औरतों ने नहीं गढ़े

    आईने के सामने अपनी देह को

    प्यार करती औरतों ने तो बिल्कुल नहीं!

    इतिहास के इन महान मिथककारों के लिए

    स्तन काटकर सामने धर देने वाली औरत देवी नहीं है

    उसके कटे स्तन पितृसत्ता की आँखों में घोपा ख़ंजर है

    जिससे साहित्य का श्लीलपन पर्दा करता है

    स्त्रियों से समाज से ज़्यादा

    उनके अपने हिस्से का अधिक छीना गया

    मसलन श्रम का दाम, नींद, भूख, प्रेम

    और अपनी ही देह से प्यार

    ऐसी स्त्रियाँ ख़ूब रोती हैं स्नानघर में

    जब रात को घिसी देह पर

    पानी बजर की तरह गिरता है और पूछता है

    कि चाँद रातों में प्रेम के झींगुर

    आख़िर चुप क्यों हो जाते हैं

    जिन्होंने अपनी देह से प्यार किया

    और उनके लिए विकल्प तलाशें

    उनकी तस्वीरों को गहरे लाल से रँगकर

    बाज़ार के बीच लगा दिया गया

    उनकी उड़ती स्कर्ट को

    हवा में सेक्स सिंबोलिज़्म के परचम की तरह लहरा दिया गया

    उन्हीं बाज़ारों में टोपी और जूतों के निशान

    अब तक असंदिग्ध हैं

    स्रोत :
    • रचनाकार : संध्या चौरसिया
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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