पराजित नायक की दिनचर्या और उसकी सीख
paraajit naayak kii dincharya aur uskii siikh
मिलने से बचता हूँ
सामने पड़ने पर कतराकर निकल जाता हूँ
मन नहीं करता किसी से बात करने का
किसी की बातें सुनने का
लड़ने-झगड़ने का तो बिल्कुल ही नहीं
हाँ भाई आप ही ठीक हैं
अब यहाँ से विदा लें
या मैं ही चला जाता हूँ
मैं आपके किसी मसरफ़ का नहीं रहा
बच्चे अच्छे लगते हैं
एकांत अच्छा लगता है
चिड़िया ने घास-फूस-तिनकों से अपना घोंसला
तैयार किया है
उससे उमगते शिशुओं की चिंता रहती है
कहीं गिर न जाएँ
पूरा चंद्रमा
काली रातों में चमकते तारे
जल से उठते सूरज की बिखरी लालिमा अच्छी है
खींचती गंध के पीछे पीछे उन लताओं तक पहुँच जाता हूँ
कुछ देर वहीं मँडराता रहता हूँ
जो भी मिल जाए खा लेता हूँ
पहन लेता हूँ
चुप रहता हूँ
पौधों को पानी देता हूँ फूलों पर पड़ी धूल साफ़ करता हूँ
किताबों के पन्ने पलटता हूँ
कोई अच्छी चीज़ मिलती है डूब कर पढ़ता हूँ
जबरन नहीं पढ़ा जाता
हूँ, हाँ, करता हूँ
वहाँ से उठ कर चल देता हूँ
काली चाय पीता हूँ
चीनी कम करता जा रहा हूँ
सुबह टहलता हूँ
ख़ुद के साथ टहलता हूँ
नहर में पानी के साथ-साथ
एक रोज़ पेड़ के नीचे एक कच्चा आम मुझे मिला
मैं तो भूल ही गया था कि हर चीज़ ख़रीदी बेची नहीं जाती
धरती के नागरिक होने के नाते
आपके लिए बहुत कुछ है
बशर्तें आप उनका व्यौपार न करें
अख़बार एकाध मिनट में पढ़ लेता हूँ
चैनलों को बदलता रहता हूँ
अतियों को सुनता हूँ
यह नशा आख़िर कब उतरेगा?
कभी-कभी रात में नींद उचट जाती है
उठकर कोई बिसरी हुई भूल याद करता हूँ
उससे जुड़ी हुई बातें याद आती हैं
कहीं बाज़ार में ज़िंदा शव घसीटा जा रहा है
पीछे-पीछे पत्थर फेंकता हुजूम है एक
कभी सपने में वह गली दिख जाती है जहाँ से गुज़रते हुए
किसी की धूप तन पर पड़ती थी
कोई पुराना गीत मन में बजता है
गूगल में उसे तलाशता हूँ
पर वहाँ उसे सुनना अच्छा नहीं लगता
बच्चे जब कोई प्रश्न करते हैं ख़ुश होता हूँ
प्रश्न अभी बचे हैं
और किए जा रहे हैं
उनसे कहता हूँ संशय रखो
दूसरे पक्ष की ओर से भी सोचो।
- रचनाकार : अरुण देव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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