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बड़ी हो रही बेटी के लिए

baDi ho rahi beti ke liye

ज्योति चावला

ज्योति चावला

बड़ी हो रही बेटी के लिए

ज्योति चावला

ज्यों-ज्यों बड़ी हो रही है मेरी बेटी

माँ मुझे और अधिक समझ में आने लगी हे

कि क्यों अक्सर वह मुझे लगा देती थी माथे पर काला टीका

ताकि बुरी नज़र पड़े किसी की मुझ पर

बेचैन हो जाती थी उसकी आँखें कि

वह तहाकर रख लेना चाहती थी मुझे

अपनी रसोई में रखी माचिस की डिबिया में

आज जब बेटी को बढ़ता देखती हूँ तो

लगता है देख रही हूँ ख़ुद को ही बढ़ते हुए

मेरी आँखें भी माँ की आँखों की तरह

रहने लगी हैं बेचैन

अक्सर उसके साथ ही रहने लगी हैं मेरी आँखें

कि जब वह जी रही हो अपने बचपन के सबसे ख़ूबसूरत पल

तब वे चौकसी कर सकें उसकी पूरी मुस्तैदी से

मैंने भी जुटा ली हैं छोटी-बड़ी जाने

कितनी ही डिब्बियाँ जिनमें

तहा कर तो कभी सहेज कर रख सकूँ

मैं अपनी बेटी को जब चाहे

पर मैं अपनी माँ-सी होना नहीं चाहती

नहीं चाहती तहाना उसके नित दिन

खिलते उजास को

मैं नहीं सहेजना चाहती उसे

ऐसे या वैसे किसी भी तरीक़े से

ध्वस्त कर देना चाहती हूँ

उन सारी डिब्बियों को जिनमें डरकर

ही तहा कर रखी जाती रही हैं बेटियाँ

मेरी बेटी बड़ी हो रही है और

मैं ध्वस्त करने में जुटी हूँ सारी डिब्बियाँ और सारे संदूक़

इन दिनों।

स्रोत :
  • रचनाकार : ज्योति चावला
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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