दशहरा
dashahra
एक
एक जुलूस है, जो साल-दर-साल इसी तरह—
जगमगाते प्रकाश में,
खोई हुई प्रतिष्ठा की तलाश में,
दक्खिन से उत्तर चला जाता है—
गाता-बजाता,
अपने अंतर की पराजय को
लगातार झुठलाता।
दक्खिन से उत्तर
लौटती हुई हताश और थकी हुई
सेनाओं के पीछे-पीछे लौटता हुआ,
एक जला हुआ नगर अपने पीछे छोड़ता हुआ—
जहाँ अब कुछ भी बाक़ी नहीं है
हैरान आँखों के लिए।
न तो हड्डियों के सफ़ेद, चमकते हुए ढेर
न मँडराते गिद्ध, न ख़ून से भरे हुए तालाब
सिर्फ़ अनाम चिताओं की टोह में
बीते हुए दुःस्वप्न की खोह में
धीरे-धीरे रेंगती हुई,
बेहद हरी घास चढ़ आई है।
दो
यह सब उसके सामने है, उसके अंदर है,
जहाँ अब प्रेम और प्रतिष्ठा के बीच
संशय और निष्ठा के बीच
एक टूटता हुआ पुरुष है।
वही जानता है।
उसके भीतर कितना अवसाद है :
आग और रक्त के निर्णय को ठुकराता
अंतर के शून्य को गुँजाता
वही दुर्दम भय—लोकापवाद है।
क्यों वह भूल गया है,
कि बह, जो उसके इस नाटक की
विडंबना झेलती रही है
वही, छाया की तरह,
उसके साथ-सारे दुखों को हेलती रही है
दुख ही आमुख
दुख ही उसके जीवन का उपसंहार है
लंका हो या अवध
उसके लिए एक-सा कारागार है।
वर्ष-दर-वर्ष, अपने प्रतिशोध की तृप्ति के लिए
वह टालता आया है हर्ष
वह जो बनना चाहता है युग का आदर्श :
अंदर से एक साधारण आदमी निकल आया है
उसे महसूस होता है,
इतनी क़ीमत चुका कर
उसने जिस सत्य को पाया है,
वह सत्य नहीं, महज़ उसकी छाया है।
लेकिन अब उसे मालूम है,
यह यात्रा के अंत की शुरुआत है
(भले ही यह उसकी प्रियतमा पर
उसी दुर्दम दैत्य—अपवाद—का आघात है)
तीन
कौन था वह जिसकी जय-यात्रा हम
इतने उत्साह, इतने जोश से मनाते हैं?
उसकी विजय, विजय नहीं, एक झुका हुआ माथ है
जिसकी सबसे बड़ी पराजय एक परित्यक्त हाथ है
वह जो अपनी शंका के आगे,
प्रवाद के सम्मुख
ख़ामोश हो गया
वह जो सत्ता का निर्विकार मुखोश हो गया
कौन था वह जिसकी जय-यात्रा हम
वर्ष दर वर्ष मनाते हैं।
चार
हर साल। साल-दर-साल। हम एक आकृति
घृणा से रच कर अपने अंदर-ही-अंदर बनाते हैं
फिर जा कर उसे हम जला आते हैं
कौन था वह जिसकी सूरत
हम आज भी अपने अंदर पाते हैं?
- पुस्तक : कुल जमा-1 (पृष्ठ 146)
- रचनाकार : नीलाभ
- प्रकाशन : शब्द प्रकाशन
- संस्करण : 2012
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