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दसबजिया के झुँड में

dasabajiya ke jhunD mein

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

दसबजिया के झुँड में

आकृति विज्ञा 'अर्पण’

खिला हो एक गेंदें का फूल

ठीक वैसे ही जैसे

किताबों के बीच 

दिख जाए अपनी पसंदीदा किताब।

बानपोखर के मेले में यह

कुछ ऐसे ही पहली बार दिखे थे तुम

जैसे ढइचाँ के खेत में

चुपचाप खड़ा हो सनई।

इंस्टा अकाउंट की पहली स्क्रालिंग में 

बिजुरी-सी चमकती दिखी थी तुम्हारी आइडी

अब प्रेम का ज़िक्र आते ही

जाता है तुम्हारा ध्यान।

शब्दों की गहमा-गहमी के बीच

चुन लेती हूँ मौन

वक़्त के चूल्हे पर पकते शब्द

कभी अचानक बन जाते हैं गीत।

जिसके नीचे की हमने एक-दूसरे की प्रतीक्षा 

अब कट गया वो पाकड़ का पेड़

बन गई है एक पक्की सी सड़क 

कुछ जोड़े उस राह से होकर जाते हैं विश्वविद्यालय।

काग़ज़ पर आँकड़ा दर्ज़ है 

लगे हैं कुछ लाख पेड़ 

नज़र ढूँढती है मगर दिखते ही नहीं 

ठीक वैसे ही जैसे फ़ोन में सेव है तुम्हारा नंबर 

मेरे हमराज़

स्रोत :
  • रचनाकार : आकृति विज्ञा 'अर्पण’
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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