मेरी गोदी में बैठी, ओ लाडली!
जब तू अपने चेहरे को मेरे हृदय पर टिकाती है, तो
बिजली की रोशनी-सी मुझमें उड़ने लगती है,
भूली-बिसरी यादों की पुलक।
मेरी धुँधलाई निगाहें तेरे सुनहरे तन पर
फिसलती-सी टिकती हैं पल भर को।
बिल्कुल साफ़ अंतर-निगाहों के सामने
दिखाई देते हैं दूसरे कोमल तन।
तेरे आने से पहले, उससे न जाने कितना पहले
जीवन के पुष्पित-पल्लवित होने के समय में,
उस वसंत की आत्मा को अपने में
प्रस्तुत करने वाले मेरे बच्चे,
जो आज भी मेरी झुर्रियोंदार खाल को गुदगुदा
देते हैं, मातृत्व के लालित्य को
केवल छुअन से जगा देने वाले प्रियदर्शी;
दिखाई देते हैं जो आज तक
अपने खिलौनों के टूटे-फूटे टुकड़ों को, बुद्धि का
विकास दिखलाने वाली लिखावट को
माँ के उठाने और सहलाने को सम्हालकर
कर्म क्रीड़ांगन में जाने वाले!
तेरी कोमल कलियों-सी नरम हथेली
मेरी मुट्ठी में सिमट जाती है तो
टटोलता है मेरा दिल, स्नेह का नीड़
बनाने वाली दूसरी उँगलियों को,
डर से आश्वासन पाने को या दुलार
पाने को आई उँगलियों को,
धूल-धूसरित, स्याही से चितकबरी
सुंदर सफ़ेद लिली की कलियों को,
जल्दी ही बड़ी होकर मेरी मुट्ठी छोड़
जाने वाली छोटी-छोटी उँगलियों को!
जब तू मेरा हाथ थाम ठुमक कर चलती है, तो
तेरी छोटी-छोटी पदछापों को
उसी क्षण पोंछ देती, यादों में आने वाली
मेरे बच्चों की प्यारी पदछापें—
आँखों में गर्व के आँसू भर मैं देखती हूँ
कोमल पदछापें—
पाठशाला से लौटने पर अपनी ओर
दौड़ती आती पदछापें—
भविष्य की खोज में तेज़ी से
आगे बढ़ती मज़बूत पदछापें...
अरी, मेरे उड़ते विचारों का भार
क्यों बढ़ा रहा है तेरा मूक शोक—
ये दादी बड़ी चालाक है! तेरी मुस्कान के
मोतियों को अधीरता से बटोरने की बजाय
किन्हीं यादों की रुद्राक्ष-माला के मनकों पर
उँगलियाँ दौड़ाती न जाने क्या जप रही है!
झुर्रियों से भरे इस चेहरे पर क्यों टिके हैं
कुतूहल से तेरी निगाहों के तीर
बुढ़ापे की परत उतारने को या
उससे चूते वात्सल्य को देखने को?
गगन में छाई नीलिमा जैसे तेरी
माँ में भरी ख़ूबसूरती को,
तेरे ज़रा से आलिंगन से दोनों पलकों में
पसर जाने वाली चाँदनी को,
तेरे होंठों के टकराने मात्र से पुलकित
वक्षस्थल से झरते पीयूष को,
क्या तू इस सबको खोजती है—
गर्मी में झुलसे मेरे तन में, ओ लाडली!
वे सब महासिद्धियाँ मिट गईं, प्राणों पर
बेकार से ओले पड़ने लगे; फिर भी
मेरे ज़िगर की उपलब्धियों में
हिस्सा बँटाने को तू आती है तो,
बीते दिनों के असीम आनंद को
तू मुझमें फिर से जगाती है तो,
तेरे डगमगाते कोमल क़दमों के नीचे
आने वाले कंकड़ मुझे दर्द देते हैं तो,
कुछ भी खोता नहीं है मानव जीवन में
समझ जाती है तेरी दादी।
इस बूढ़े दिल में काफ़ी ख़जाना है
तेरे कोमल-कोमल हाथों से बटोरने को।
- पुस्तक : नैवेद्य (निवेद्यम्) (पृष्ठ 17)
- रचनाकार : बालमणि अम्मा
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 1996
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