कुछ मनोभाव

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    प्रेम और घृणा

    प्रेम पर सब लिखते हैं,
    घृणा पर कोई नहीं लिखता, 
    जबकि कई बार प्रेम से ज़्यादा तीव्र होती है घृणा
    प्रेम के लिए दी जाती है शाश्वत बने रहने की शुभकामना,
    लेकिन प्रेम टिके न टिके, घृणा बची रहती है। 

    कई बार ऐसा भी होता है
    कि पहली नज़र में जिनसे प्रेम होता है
    दूसरी नज़र में उनसे ईर्ष्या होती है और 
    अंत में कभी-कभी वह घृणा तक में बदल जाती है।

    यह तजवीज़ कभी काम नहीं आती
    कि सबसे प्रेम करो, ईर्ष्या किसी से न करो
    और घृणा से दूर रहो।

    हमारे समय में नहीं, शायद हर समय
    प्रेम की परिणतियाँ कई तरह की रहीं
    कभी-कभी ईर्ष्या भी बदलती रही प्रेम में
    लेकिन ज़्यादातर प्रेम बदलता रहा
    कभी-कभी ईर्ष्या और घृणा तक में
    और अक्सर ऊब और उदासी में।

    हालाँकि कामना यही करनी चाहिए
    कि इस परिणति तक न पहुँचे प्रेम
    और कई बार ऐसा होता भी है
    कि ऊब और उदासी और ईर्ष्या और नफऱत के नीचे
    भी तैरती मिलती है एक कोमल भावना
    जिसे ज़िंदगी की रोशनी सिर्फ़ प्रेम की तरह पहचानती है।

    चिंता  

    चिंताएँ कभी ख़त्म नहीं होतीं
    नींद में भी घुसपैठ कर जाती हैं
    धूसर सपनों वाले कपड़े पहनकर
    जागते समय साथ-साथ चला करती हैं
    कभी-कभी उनके दबाव कुछ कम हो जाते हैं
    तब फैला-फैला लगता है आकाश,
    प्यारी-प्यारी लगती है धूप
    नरम-मुलायम लगती है धरती।

    लेकिन जब कभी बढ़ जाती हैं चिंताएँ
    बाक़ी कुछ जैसे सिकुड़ जाता है
    हवा भी भारी हो जाती है
    साँस लेने में भी मेहनत लगती है
    एक-एक क़दम बढ़ाना पहाड़ चढ़ने के बराबर महसूस होता है।

    कहाँ से पैदा होती है चिंता?
    क्या हमारे भीतर बसे आदिम डर से?
    या हमारे बाहर बसे आधुनिक समय से?
    या हमारे चारों ओर पसरी उस दुनिया से
    जो दरअसल टूटने-बनने के एक न ख़त्म होने वाले सिलसिले का नाम है?
    क्या निजी उलझनों के जाल से
    या बाहरी जंजाल से
    हमारे स्वभाव से या दूसरों के प्रभाव से? 

    कभी-कभी ऐसे वक़्त भी आते हैं जब बिल्कुल चिंतामुक्त होता है आदमी,
    एक तरह के सूफ़ियाना आत्मविश्वास से भरा हुआ कि जो भी होगा निबट लेंगे
    एक तरह की अलमस्त फक्कड़ता से लैस कि ऐसी कौन-सी चिंता है जो ज़िंदगी से बड़ी है,
    कभी इस दार्शनिक ख़याल को जीता हुआ कि चिंता है तो ज़िंदगी है, 
    लेकिन ज़िंदगी है इसलिए चिंता जाती नहीं।
    कुछ न हो तो इस बात की शुरू हो जाती है कि पता नहीं कब तक बचा रहेगा ये चिंतामुक्त समय। 
    बस इतनी-सी बात समझ में आती है, आदमी है इसलिए चिंता है। 

    उम्मीद

    यह उम्मीद है जो हमें बचाए रखती है
    हालाँकि यह बहुत पुराना वाक्य है, बहुत बार लगभग इसी तरह, इन्हीं शब्दों में दुहराया हुआ
    लेकिन यह वाक्य पीछा नहीं छोड़ता, जैसे उम्मीद पीछा नहीं छोड़ती।

    चिंता के अंधे कुएँ में भी किसी हल्के कातर उजाले की तरह बची रहती है।

    कहाँ से पैदा होती है यह उम्मीद
    जब आप किसी अंधे कुएँ में गिरे पड़े हों 
    कोई रस्सी, कोई सीढ़ी, कोई ईंट, कोई रोशनी
    आपको दिखाई न पड़ रही हो
    कोई हाथ बढ़ाने वाला न हो, कोई देखने वाला न हो, कोई सुनने वाला भी न हो
    तो भी एक कातर-सी लौ जलती रहती है,
    कुछ ऐसा हो जाने की उम्मीद
    जो आपके खींच लाएगी कुएँ से बाहर।

    फिर पूछता हूँ, 
    कहाँ से पैदा होती है उम्मीद
    यह नासमझी की संतान है
    या बुद्धि की विरासत
    या उस अबूझ जिजीविषा की देन
    जिसमें थोड़ी-सी नादानी भी होती है थोड़ा-सा विवेक भी
    थोड़ा-सा डर भी, थोड़ा-सा भरोसा भी
    थोड़ी-सी नाकामी भी, थोड़ी-सी कामयाबी भी
    दरअसल, यह उम्मीद ही है
    जिसकी उँगली थामे-थामे इंसान ने किया है अब तक का सफ़र तय।

    डर

    डर भी होता है
    कई रूपों में दबा हुआ
    कई बार वह जमता-जमता ढीठ हो जाता है कुछ अमानवीय भी
    और निकलता भी है उसी तरह
    हमारे भीतर की बहुत सारी क्रूरताएँ
    हमारे डरों की ही संतान होती हैं
    डर हमें कमज़ोर करता है
    डर से आँख मिलाने से भी हम डरते हैं
    चाहते हैं, बसा रहे हमारे भीतर, हम ही उससे बनें रहे बेख़बर
    लेकिन हमारे पीछे-पीछे चलते रहते हैं हमारे डर
    जिनसे बचने के लिए हम खोजते हैं कोई ईश्वर
    फिर ईश्वर से डरते हैं
    इसके बाद डर भी बना रहता है
    ईश्वर भी बना रहता है।

    लालच

    जिसने भी कहा
    लालच बुरी बला है,
    बिल्कुल सही कहा
    इसलिए ही नहीं कि लालच के नतीजे बुरे होते हैं
    इसलिए कि लालच बिल्कुल पीछा नहीं छोड़ता
    डर और ईर्ष्या की तरह इससे भी आप जितना बचना चाहते हैं,
    उतना ही यह आपके पीछे लगा रहता है। 

    इस लालच को साधने में जैसे बीत जाता है सारा जीवन
    उम्र बीत जाती है लालच नहीं बीतता,
    बस कुछ मुखौटे पहन लेता है
    कुछ मद्धिम पड़ जाता है
    बहुत छिछली किस्म की कामनाओं से ऊपर उठ जाता है
    दरअसल, लालच की भी होती हैं क़िस्में
    पैसे का लालच सबसे बड़ा दिखता है, लेकिन सबसे कमज़ोर साबित होता है
    प्रेम का लालच सबसे ओछा दिखता है, लेकिन कई बार सबसे मज़बूत साबित होता है
    शोहरत का लालच आसानी से नहीं दिखता, लेकिन जड़ जमाए बैठा होता है हमारे भीतर
    और
    अच्छा दिखने, माने जाने और कहलाने का लालच तो जैसे लालच माना ही नहीं जाता। 
    शायद इन्हीं आखिरी दो श्रेणियों की वजह से बचा रहता है कविता लिखने का भी मोह,
    कवि कहलाने का भी लालच।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रियदर्शन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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