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कर्फ़्यू

curfew

अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र

रमाकांत रथ

रमाकांत रथ

कर्फ़्यू

रमाकांत रथ

और अधिकरमाकांत रथ

    ढहते मकानों की परछाई में

    अँधेरी और सुनसान ठंडी गली में

    हमारी मुलाक़ात हुई, तुम्हारे घने बालों को

    सहलाते समय मुझे लगा

    मेरे हाथ सुन्न हो गए हैं

    तुम्हारे बाल एक विस्तीर्ण, तुषाराच्छादित

    निर्मम क्षेत्र हैं।

    सहसा सँभलकर फिर से

    तुम्हारे बाल सहलाते-सहलाते लगा

    वह एक जलता हुआ जंगल है;

    निर्वासित, चलने में असमर्थ वृद्ध मैं,

    आग के क्रमशः संकुचित होते वृत्त में

    एक असुरक्षित मनुष्य,

    भविष्य है मेरा अंगारों का ढेर।

    तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती है

    ख़ूब ऊपर उड़ते

    बमवर्षक हवाईजहाज़ की आवाज़ में,

    टैंक आने और सेना के चलने की आवाज़

    सुनाई देती है तुम्हारे ही स्वरों में,

    तुम हिस्सा हो उसी घोर आतंक का जो

    इतिहास लाता रहता है

    थोड़े-थोड़े अंतराल पर

    पुराने घाव सूखने से पहले

    नई-नई चोटों से जर्जरित करता।

    सारे दरवाज़े बंद हैं।

    सारे कमरे ख़ामोश।

    सारी हँसी-रुलाई

    सारी साँझ और सुबहें

    सारे धान के खेत, फूलों के बगीचे झरने

    कहाँ हैं?

    कुछ भी तो नहीं दीखता।

    मैं सहलाता हूँ निष्प्रदीप महाशून्य में

    एक काल्पनिक सिर के बारूदी महक से सुगंधित बाल

    गीले-गीले लगते हैं वे

    यातनापूर्ण शैशव के अब तक ऊष्म ख़ून से।

    छिपे हैं उनमें व्यर्थ होने को

    अभिप्रेत कई सपने, फिर बह जाते हैं

    वे किसी फूटते बाल ज्वालामुखी के

    लावे की तरह पल में साफ़ कर डालते हैं

    उन गाँवों और शहरों को

    जहाँ रहते हैं मरे हुए लोग

    समाप्त कर देता है वह दुर्गंध

    शत्रुता और परिहास की,

    बहने लगता है मेरा अंगार शरीर में,

    अचल टैंक और पैदल चलने में असमर्थ

    पल्टनों के अंदर

    निरुद्विग्न मरुथल से होकर बह जाता है

    जहाँ होते हैं केवल कुछ कँटीले वन,

    नहीं होता कहीं कोई फूल या पत्ता।

    अचानक फैल जाती है रोशनी आसमान में

    कल की रात से निकलकर असंख्य चिड़ियाँ

    उड़ जाती हैं कोलाहल करती,

    बच्चों के खेलने का रास्ता अब सुरक्षित है,

    खुले हैं खिड़की और दरवाज़े अब सबके

    अब हूँ मैं खुला पवन,

    सहला पाकर तुम्हारे घने बाल

    सहला रहा हूँ

    सूर्य-चंद्र, धान की बालियाँ और

    फेन समुद्र का।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तैयार रहो मेरी आत्मा (पृष्ठ 61)
    • रचनाकार : रमाकांत रथ
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1998

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