मन एक पुरुष का अहम था
जितना बाँधा गया
उतना खुला
मन एक पुरुष का अहम था
कुछ और न था
अभिसार की बेला
तुम्हारे मुख से आई मेरे मुख में
भाषा ऐसी थी
जैसे मिसरी की ढेली
उत्तर की और मुख कर सोती
दक्षिण की ओर पगतल
ऐसे ही रहती कविता
कवि के समानांतर
जैसे रहती है उसकी स्त्री
तुम रजत माला की तरह फेरते
वह चाहती तुलसी माला की तरह फेरी जाए
भाव की तरह खोने न पाए
कठोर पाषाण-सी जगहों पर
शब्द की तरह सूख कर गिरने की जगह मिले
कर्णफूल न था वह
संवाद था मेरा अपनी अपूर्णता से
जिसमें उलझ जाते तुम
उलझ जाता मेरा शिल्प
मेरी वेणी की बेली थी
जो जितनी नष्ट हुई
उतनी ही तीव्र हुई उसकी गंध
तुम्हारी देह में आई
तुम्हारी निद्रा में आई
आई तुम्हारे चरित्र में
जैसे आती है मध्यमार्गी समीक्षा
एक पुराने अपदस्थ कवि द्वारा
एक नए कवि की।
- रचनाकार : ज्योति शोभा
- प्रकाशन : समालोचन
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