सबसे बलशाली प्रेमी छाँट लो
sabse balshali premi chhant lo
तुम्हारी आत्मा साफ़ है
भरी हुई प्याली की तरह
ऊँची चट्टान पर बैठा मैं
बूढ़ा हो चला हूँ पूर्वजों के प्रताप से
अग्नि और जल की दया से
उँगलियों पर त्वचा ढीली हो चली है
अच्छा था यौवन, शोरबा पकाते कड़ाहे के नीचे
आग-सा। अब बूढ़ा हूँ, देख सकता हूँ
तुम्हारी आत्मा साफ़ है
उसकी अंजुली पर पानी में, धूप का गेहूँ
अपनी बालियाँ तिराता है।
तुम जाती हो हाँकती हुई रेवड़
अपने रेवड़ की भोली बकरी, तुम
अकेली तुम इन पर्वतों के बीच
बचाए रख सकती हो हमारी उपस्थिति
ताकि हम पितरों को मांस दे सके
नेज़े हम अपने, उनके अलाव पर
तापते रहें। हिरणों की खाल उतार
लपेट लें, जंघाओं पर
हिरण भरे रहेंगे इन हरी पहाड़ियों के
घुमावदार रास्तों पर
नेज़े हमारे तीखे रहेंगे। प्रसन्न होंगे पितर
तुम पर
पितर मुझे बताते हैं कि तुम
पार करवा दोगी रेत के फैलाव
जब वे आएँगे हमारे नौजवानों के सामने
जैसा कि आदि ग्रंथों में लिखा है
जब ताप होगा, और बस फैलता मैदान
गिरे योद्धा की उघड़ी पीठ-सा
तब तुम पहचान लोगी रास्ता
रेतीले पेड़ों की टहनियाँ तुम जानती हो
प्यासे होंगे बच्चे, और औरतें
कुल्हाड़ों की मूठ पर नौजवानों के हाथ निढाल
तुम रास्ता खोजोगी
टहनियों को अगल-बग़ल करतीं
तंग दर्रों में बर्फ़ की ढलानों पर
हर बार तुम्हारे सुनहरी बालों के उड़ने की
विपरीत दिशा में
होगा हमारे लोगों का रास्ता
भोली बकरी, तुम रेवड़ के थनों का दूध लो
चाहो चुरा कर पी लो
काली चट्टान के साये में, तूफ़ान में भूखे
हमारे लोगों को तुम
बराबर बाँटोगी, नेज़े और दूध
मांस और कुल्हाड़े
बच्चे तुम्हारी छाया की शरण में
पर्वतों की छाया में, सिर्फ़ तुम्हारा आकार
होगा, सबसे ऊँचा, तुम्हारी छाया को
फैलना है। उसमें थके हुओं का ठौर है
तुम में तीरों की दिशा है
धनुष का मोड़ सिर्फ़ तुम में
मैं नहीं जानता कैसे
पर तुम्हें ही भर जाना है
पूर्वजों के आदेश से। वरना
अंतिम हैं हम
योद्धाओं की यह तांबई प्रजाति
इन पर्वजों में खो जाएगी
बिना किसी इतिहास
पीछे बचा नहीं रहेगा
कोई गीत,
भाषा हमारी अबूझ
पठारों में सो जाएगी
योद्धाओं की हड्डियाँ बिखर जाएँगी
हरे झाड़ों में फूल चुनने नहीं कोई आएगा
हमारी त्वचा का अलाव बुझ जाएगा
राख भर गिलेगी पर्वतारोहियों को
कभी
हरे पर्वतों पर मेघों में कालिख भारी है
हरे पर्वतों की चट्टानों पर दबाव है
वह पानी बन बहेगा रास्तों पर
हम बह जाएँगे
डूबते हए, ऊपर उठे हाथ की तरह
हमारे नुकीले भाले पानी में उठे दिखाई देंगे
डूबते, अपनी छोटी रंगीन ध्वजाओं सहित
ढाल फिर तैरती दिखाई देगी, मानों काठ की हो
हमारे प्रेम में प्रहार
अभिशप्त हैं हम ख़त्म होने को
तीखे छुरे के नीचे
दौड़ते, धूमकर
मानों धीमे नाच में थाप देकर
तूफ़ान-से घोंपते अपना भाला
दुश्मन की पीठ पर
भयानक पशु की आँखें तौलते
तौलते, उसे लाद कर लाते
हमले की चोट में नाच की थाप
अभिशप्त हैं हम ख़त्म होने को।
योद्धाओं के कड़ियल चेहरों पर अभी भागी प्रेम
तिरता है
पर्वतों पर धूप जैसे
धैर्य यह पठारों का
चुक जाएगा
अंतिम है हम
केवल तुम इन पहाड़ों के बीच
बचाए रख सकती हो हमारी उपस्थिति
तुम्हारे नाख़ूनों में संचित रहेगा
हमारे आदि ग्रंथों का न
एक सहस्र लड़ाइयों में अपनी चौड़ी तलवार थामे
तुम ऐसे सुरक्षित रखोगी, अजस्र हमारी भाषा
तुम्हारी कड़ी पीठ पर धूप में
पत्तियाँ टिकाएँगे प्रेमी
तुम्हारी आँखों में नील बचा रहेगा
कमल भरी झीलों का जल
तुम्हारे होंठों पर मदिरा के बीज बचेंगे
सहेजे हुए बर्फ़ीले तूफ़ान में भी
यह कैसे होगा और कब
मैं नहीं जानता
लेकिन तुम्हारी आत्मा का यह असंभव नीलापन
आकाश जैसा। यों ही नहीं है
मेरा प्रणाम ग्रहण करो
मुझे सौंपने दो सारी प्रार्थनाएँ पितरों की
भय हमारे लोगों के
तुम्हारी ताक़त और साहस कम नहीं होंगे
एक सहस्र युद्धों की थकान में
भोली लड़की, अभी हरी पहाड़ियों में रेवड़
ले जाओ
सबसे बलशाली प्रेमी छाँट लो
- पुस्तक : साक्षात्कार 196 (पृष्ठ 41)
- संपादक : ध्रुव शुक्ल
- रचनाकार : जितेंद्र रामप्रकाश
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