बजट के अँधेरे में
नींद का
सविनय अवज्ञा आंदोलन
चल रहा है
नारों के पीछे
चीज़ों का नाटक बनाती हुई
भीड़ में
किसी बेशऊर आदमी का
बैरंग पुतला
चिट्ख-चिट्ख जल रहा है,
उसकी राख
फुटपाथ पर पड़े भिखारी के
ख़ाली कटोरे में
गिर रही है
धुएँ से ढके हुए
आसमान के नीचे
लगता है कि हर चीज़
झूठ है :
आदमी
देश
आज़ादी
और प्यार—
सिर्फ़, नफ़रत सही है
नफ़रत सही है
इस शहर में
या उस शहर में
यानी मेरे या तुम्हारे शहर में
चंद चालाक लोगों ने—
(जिनकी नरभक्षी जीभ ने
पसीने का स्वाद चख लिया है)
बहस के लिए
भूख की जगह
भाषा को रख दिया है
उन्हें मालूम है कि भूख से
भागा हुआ आदमी
भाषा की ओर जाएगा
उन्होंने समझ लिया है कि—
एक भुक्खड़ जब ग़ुस्सा करेगा,
अपनी ही अँगुलियाँ
चबाएगा
और अब—
वे लौटा रहे हैं उपाधियाँ
और अलंकार,
उत्तेजित भीड़ का कवच
धारण करने के लिए
उनकी बनियानों के नीचे
छिपी हुई ख़ूनी कटार
एक बार
फिर परोपकारी क़लम में
तब्दील हो गई है
और लो,
लिपियों के अंधे कुहराम में
देखते ही देखते
एक परिचित चेहरा
किसी तत्सम शब्द की तरह अपरिचित
हो गया है
एक तारा टूटा है
उत्तर से दक्षिण की ओर
रोशनी की भागती हुई गूँज के
सिरे से छूटकर
गिरा है—
लुंडमुंड—चीख़ता हुआ आसमान
जैसे आत्महत्या की
कोशिश करता हुआ आदमी
रस्सी टूटने से
ज़मीन पर गिरा है
शहर
दूसरे शहर की अफ़वाहों से
घिरा है
बख्तरबंद गाड़ियों का दस्ता
तुम्हारी बग़ल से
अभी-अभी गुज़रा है
‘तीन मुँहवाली’ एक ख़ौफ़नाक परछाईं
तुम्हारे सामने
टाँगे पसारकर
बेझिझक लेट गई है।
यह भाषा की रात—
नंगी
और
ठंडी
और
काली
‘तीन मुँहवाली’ यह भाषा की रात है
तुम्हारी ऊब का
चेहरा पहनकर
हत्यारों ने
फिर
उसी ज़ुबान में
बोलना शुरू किया है
जिसमें तुम्हारे बचपन की
लोरियों की गंध है
और
जो तुम्हें बेहद पसंद है।
उनके भीतर
लाल फीतोंवाली
मौक़ापरस्त
बौनी भलमनसाहत
दुबारा जगी है
और सहसा
उनकी सहानुभूति
तुम्हारे पसीने की बदबू से
मेल खाने लगी है
यानी उन्होंने मान लिया है कि
जो बीमार है
उसे रोशनी में
नंगा होने का
पूरा अधिकार है
उन्होंने सुरक्षित कर दिए हैं
तुम्हारे संतोष के लिए
पड़ोसी देशों की
भुखमरी के क़िस्से,
तुम्हारे ग़ुस्से के लिए
अख़बार का
आठवाँ कॉलम
और तुम्हारी ऊब के लिए
‘वैष्णव जण तो तेणे कहिए’ की
नमकीन धुन
गरज यह कि तुम्हें पूरा जाम करने का
पूरा इंतज़ाम है
जहाँ चीज़ें
तुम्हारी शिनाख़्त के अभाव में
अपनी असलियत खो रही हैं
वहाँ मादरी ज़ुबान में
देश का
चमकता हुआ नाम है
लेकिन तुम
अपने-आपमें डूबे हुए
चुपचाप—
खड़े हो
किताब में छपे पेड़ की तरह
मौसम से बेख़बर
और मैं
तुम्हें वक़्त में
वापस खींच लाने की कोशिश में
लगा हूँ,
नहीं—मुझे इस तरह
डबडबाई हुई आँखों से
मत घूरो
मैं तुम्हारे ही कुनबे का आदमी हूँ
शरीफ़ हूँ
सगा हूँ,
फ़िलहाल,
तुम्हें ग़लत जगह डालने का
मेरा कोई इरादा नहीं है,
मगर साथ ही
यह भी साफ़ कर दूँ कि मेरा साहस
राशनकार्ड में लिखे—
एक फ़ालतू नाम की दलील से
ज़्यादा नहीं है।
हाँ, मैं भी भयभीत हूँ
व्यवस्था की खोह में
हर तरफ़
बूढ़े और रक्तलोलुप मशालची
घूम रहे हैं
इतिहास की ताज़गी
बनाए रखने के लिए
नौजवान और सफल
मौतों की टोह में
उन्हें हमारी तलाश है
उन्होंने जलते हुए आदमी को
झंडे की तरह उठा लिया है
और उसे
हमारे चेहरों पर
गाड़ना चाहते हैं
उन्हें हमारी तलाश है
ज़मीन की जली हुई जिल्द पर खड़ा
रोशनी सूँघनेवाले जासूस कुत्तों का
ख़तरनाक झुंड
उनके इशारों का इंतज़ार कर रहा है
हर तरफ़ ‘जागते रहो’ के करिश्मे
गश्त कर रहे हैं
कल तक मुँह में जीभ डालकर
बोलने वाला प्यारा पड़ोसी
आज,
देशी दाँतों की दोस्ती से
डर रहा है
यह भाषा की रात है
चीज़ें
या तो झुक रही हैं
या पीछे हट रही हैं
भाषा और भाषा के बीच की दरार में
उत्तर और दक्षिण की तरफ़
फन पटकता हुआ
एक दोमुँहा विषधर
रेंग रहा है
रोज़ी के नाम पर
रोटी के नाम पर
जगह-जगह ज़हर
फेंक रहा है
और... और वह देखो कि—आऽऽ है
प्रांतीयता का चेहरा लगाए हुए
कोई घुसपैठिया है?
और वह देखो वहाँ—
वे तैश-भरे चेहरे
वे मेरे देश के हमउम्र नौजवान
जिनकी आँखों में
रोज़गार-दफ़्तर की
नोनछही ईंटों का अक्स
झिलमिला रहा है—
वे मेरे दोस्त—
किस तेज़ी से तोड़ना चाहते हैं भाषा का भ्रम
लेकिन रेल का डब्बा
टूट रहा है
वे हाँफती हुई जंगली नदी के
दहाने पर पहुँच गए हैं
(जहाँ से बैलों के भित्तिचित्रों वाली
पाषाणकालीन गुफा
शुरू होती है)
और शहर—
अपनी भूल-चूक का
अता-पता पूछने वाला शहर—
बहुत पीछे छूट रहा है
दूर बहुत दूर
जहाँ आसमान अपने बौने हाथों से
हिंदुस्तान की ज़मीन को
नंगा कर रहा है
एक विदेशी मुद्रावाला—
अवैतनिक दुभाषिया खिलखिला रहा है—
और वो देखो—
वह निहाल—तोंदियल
कैसा मगन है
हुचुर-हुचुर हँस रहा है
भाड़े की भीड़ के अंधे जुनून पर
उसे, कतई, एतराज़ नहीं है
उसका कहना है कि लाभ और शुभ के बीच
सिंदूर तो है मगर लाज
नहीं है
यह सारी अवहेलना—
यह सारा जोश
यह सारी ऊब
यह सारा रोष—
उसके लिए केवल तमाशा है
बिना किसी क्षोभ के
उसने अपने तख़्तियों के अक्षर
बदल दिए हैं
क्योंकि बनिया की भाषा तो सहमति की
भाषा है
देश डूबता है तो डूबे
लोग ऊबते हैं तो ऊबें
जनता लट्टू हो
चाहे तटस्थ रहे
बहरहाल, वह सिर्फ़ यह चाहता है
कि उसका ‘स्वस्तिक’—
स्वस्थ रहे
ओ, भाषावार हमलों से हलकान मेरे भाई!
क्या तुम्हें अब भी
उसी का भरोसा है,
जिसके अधिकार में
हमारी लिट्टी है,
चावल है
इडली है
दोसा है?
हाय! जो असली कसाई है
उसकी निगाह में
तुम्हारा यह तमिल-दुख
मेरी इस भोजपुरी-पीड़ा का
भाई है
भाषा उस तिकड़मी दरिंदे का कौर है
जो सड़क पर और है
संसद में और है
इसलिए बाहर आ!
संसद के अँधेरे से निकलकर
सड़क पर आ!
भाषा ठीक करने से पहले आदमी को ठीक कर
आ! अपने चौदहों मुखों से
बोलता हुआ आ!
ओ देश के पोर-पोर में दुखते हुए गूँगे जुनून!
क्रोध की अकेली मुद्रा में
उफनते हुए सात्विक ख़ून!
आ, बाहर आ,
मैं एक अदना कवि—तेरी भाषा का मुँहताज,
मुझे अपनी बोली में शरीक कर!
चीख़, अपने होने की पीड़ा से चीख़
लीक तोड़
अब और तरह—
मत दे
साफ़-साफ़ कह दे—
भूख जो कल तक रोशनी थी
आज, नींद से पहले का
जागरण है,
सुविधापरस्त लोगों के
ऊसर दिमाग़ में
थूहर की तरह उगी हुई राजनीति
शब्दों से बाहर का व्याकरण है,
साफ़-साफ़ कह दे कि यह
सिर्फ़, सकारी हुई आत्मीयता है
कि भूखा रहकर भी आदमी
अपने हिस्से का आकाश
मुस्कुराते हुए ढोता है
अपने देश की मिट्टी को आँख की
पुतली समझता है
वरना, रोटी के टुकड़े पर
किसी भी भाषा में देश का नाम लिखकर
खिला देने से
कोई देशभक्त नहीं होता है।
budget ke andhere mein
neend ka
sawinay awaj~na andolan
chal raha hai
naron ke pichhe
chizon ka natk banati hui
bheeD mein
kisi beshaur adami ka
bairang putla
chitkh chitkh jal raha hai,
uski rakh
phutpath par paDe bhikhari ke
khali katore mein
gir rahi hai
dhuen se Dhake hue
asman ke niche
lagta hai ki har cheez
jhooth hai ha
adami
desh
azadi
aur pyar—
sirf, nafar sahi hai
nafar sahi hai
is shahr mein
ya us shahr mein
yani mere ya tumhare shahr mein
chand chalak logon ne—
(jinki narbhakshai jeebh ne
pasine ka swad chakh liya hai)
bahs ke liye
bhookh ki jagah
bhasha ko rakh diya hai
unhen malum hai ki bhookh se
bhaga hua adami
bhasha ki or jayega
unhonne samajh liya hai ki—
ek bhukkhaD jab ghussa karega,
apni hi anguliyan
chabayega
aur ab—
we lauta rahe hain upadhiyan
aur alankar,
uttejit bheeD ka kawach
dharan karne ke liye
unki baniyanon ke niche
chhipi hui khuni katar
ek bar
phir paropakari qalam mein
tabdil ho gai hai
aur lo,
lipiyon ke andhe kuhram mein
dekhte hi dekhte
ek parichit chehra
kisi tatsam shabd ki tarah aprichit
ho gaya hai
ek tara tuta hai
uttar se dakshain ki or
roshni ki bhagti hui goonj ke
sire se chhutkar
gira hai—
lunDmunD—chikhta hua asman
jaise atmahatya ki
koshish karta hua adami
rassi tutne se
zamin par gira hai
shahr
dusre shahr ki afwahon se
ghira hai
bakhtarband gaDiyon ka dasta
tumhari baghal se
abhi abhi guzra hai
‘teen munhwali’ ek khaufnak parchhain
tumhare samne
tange pasarkar
bejhijhak let gai hai
ye bhasha ki raat—
nangi
aur
thanDi
aur
kali
‘teen munhwali’ ye bhasha ki raat hai
tumhari ub ka
chehra pahankar
hatyaron ne
phir
usi zuban mein
bolna shuru kiya hai
jismen tumhare bachpan ki
loriyon ki gandh hai
aur
jo tumhein behad pasand hai
unke bhitar
lal phitonwali
mauqaprast
bauni bhalmansahat
dubara jagi hai
aur sahsa
unki sahanubhuti
tumhare pasine ki badbu se
mel khane lagi hai
yani unhonne man liya hai ki
jo bimar hai
use roshni mein
nanga hone ka
pura adhikar hai
unhonne surakshait kar diye hain
tumhare santosh ke liye
paDosi deshon ki
bhukhamri ke qisse,
tumhare ghusse ke liye
akhbar ka
athwan column
aur tumhari ub ke liye
‘waishnaw jan to tene kahiye’ ki
namkin dhun
garaj ye ki tumhein pura jam karne ka
pura intzam hai
jahan chizen
tumhari shinakht ke abhaw mein
apni asliyat kho rahi hain
wahan madari zuban mein
desh ka
chamakta hua nam hai
lekin tum
apne apmen Dube hue
chupchap—
khaDe ho
kitab mein chhape peD ki tarah
mausam se beख़bar
aur main
tumhein waक़t mein
wapas kheench lane ki koshish mein
laga hoon,
nahin—mujhe is tarah
DabDabai hui ankhon se
mat ghuro
main tumhare hi kunbe ka adami hoon
sharif hoon
saga hoon,
filaha,
tumhein ghalat jagah Dalne ka
mera koi irada nahin hai,
magar sath hi
ye bhi saf kar doon ki mera sahas
rashankarD mein likhe—
ek faltu nam ki dalil se
zyada nahin hai
han, main bhi bhaybhit hoon
wyawastha ki khoh mein
har taraf
buDhe aur raktlolup mashalchi
ghoom rahe hain
itihas ki tazgi
banaye rakhne ke liye
naujawan aur saphal
mauton ki toh mein
unhen hamari talash hai
unhonne jalte hue adami ko
jhanDe ki tarah utha liya hai
aur use
hamare chehron par
gaDna chahte hain
unhen hamari talash hai
zamin ki jali hui jild par khaDa
roshni sunghnewale jasus kutton ka
khatarnak jhunD
unke isharon ka intज़ar kar raha hai
har taraf ‘jagte raho’ ke karishme
gasht kar rahe hain
kal tak munh mein jeebh Dalkar
bolne wala pyara paDosi
aj,
deshi danton ki dosti se
Dar raha hai
ye bhasha ki raat hai
chizen
ya to jhuk rahi hain
ya pichhe hat rahi hain
bhasha aur bhasha ke beech ki darar mein
uttar aur dakshain ki taraf
phan patakta hua
ek domunha wishadhar
reng raha hai
rozi ke nam par
roti ke nam par
jagah jagah zahr
phenk raha hai
aur aur wo dekho ki—aऽऽ hai
prantiyata ka chehra lagaye hue
koi ghuspaithiya hai?
aur wo dekho wahan—
we taish bhare chehre
we mere desh ke hamumr naujawan
jinki ankhon mein
rozgar daftar ki
nonachhhi inton ka aks
jhilmila raha hai—
we mere dost—
kis tezi se toDna chahte hain bhasha ka bhram
lekin rail ka Dabba
toot raha hai
we hanpti hui jangali nadi ke
dahane par pahunch gaye hain
(jahan se bailon ke bhittichitron wali
pashanakalin gupha
shuru hoti hai)
aur shahr—
apni bhool chook ka
ata pata puchhne wala shahr—
bahut pichhe chhoot raha hai
door bahut door
jahan asman apne baune hathon se
hindustan ki zamin ko
nanga kar raha hai
ek wideshi mudrawala—
awaitanik dubhashaiya khilkhila raha hai—
aur wo dekho—
wo nihal—tondiyal
kaisa magan hai
huchur huchur hans raha hai
bhaDe ki bheeD ke andhe junun par
use, kati, etraaz nahin hai
uska kahna hai ki labh aur shubh ke beech
sindur to hai magar laj
nahin hai
ye sari awhelana—
ye sara josh
ye sari ub
ye sara rosh—
uske liye kewal tamasha hai
bina kisi kshaobh ke
usne apne takhtiyon ke akshar
badal diye hain
kyonki baniya ki bhasha to sahamti ki
bhasha hai
desh Dubta hai to Dube
log ubte hain to uben
janta lattu ho
chahe tatasth rahe
baharhal, wo sirf ye chahta hai
ki uska ‘swastik’—
swasth rahe
o, bhashawar hamlon se halkan mere bhai!
kya tumhein ab bhi
usi ka bharosa hai,
jiske adhikar mein
hamari litti hai,
chawal hai
iDli hai
dosa hai?
hay! jo asli kasai hai
uski nigah mein
tumhara ye tamil dukh
meri is bhojapuri piDa ka
bhai hai
bhasha us tikaDmi darinde ka kaur hai
jo saDak par aur hai
sansad mein aur hai
isliye bahar aa!
sansad ke andhere se nikalkar
saDak par aa!
bhasha theek karne se pahle adami ko theek kar
a! apne chaudhon mukhon se
bolta hua aa!
o desh ke por por mein dukhte hue gunge junun!
krodh ki akeli mudra mein
uphante hue satwik khoon!
a, bahar aa,
main ek adna kawi—teri bhasha ka munhataj,
mujhe apni boli mein sharik kar!
cheekh, apne hone ki piDa se cheekh
leak toD
ab aur tarah—
mat de
saf saf kah de—
bhookh jo kal tak roshni thi
aj, neend se pahle ka
jagaran hai,
suwidhaprast logon ke
usar dimagh mein
thuhar ki tarah ugi hui rajaniti
shabdon se bahar ka wyakaran hai,
saf saf kah de ki ye
sirf, sakari hui atmiyata hai
ki bhukha rahkar bhi adami
apne hisse ka akash
muskurate hue Dhota hai
apne desh ki mitti ko ankh ki
putli samajhta hai
warna, roti ke tukDe par
kisi bhi bhasha mein desh ka nam likhkar
khila dene se
koi deshabhakt nahin hota hai
budget ke andhere mein
neend ka
sawinay awaj~na andolan
chal raha hai
naron ke pichhe
chizon ka natk banati hui
bheeD mein
kisi beshaur adami ka
bairang putla
chitkh chitkh jal raha hai,
uski rakh
phutpath par paDe bhikhari ke
khali katore mein
gir rahi hai
dhuen se Dhake hue
asman ke niche
lagta hai ki har cheez
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desh
azadi
aur pyar—
sirf, nafar sahi hai
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ya us shahr mein
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chand chalak logon ne—
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pasine ka swad chakh liya hai)
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bhookh ki jagah
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we lauta rahe hain upadhiyan
aur alankar,
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chhipi hui khuni katar
ek bar
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tabdil ho gai hai
aur lo,
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dekhte hi dekhte
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kisi tatsam shabd ki tarah aprichit
ho gaya hai
ek tara tuta hai
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roshni ki bhagti hui goonj ke
sire se chhutkar
gira hai—
lunDmunD—chikhta hua asman
jaise atmahatya ki
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rassi tutne se
zamin par gira hai
shahr
dusre shahr ki afwahon se
ghira hai
bakhtarband gaDiyon ka dasta
tumhari baghal se
abhi abhi guzra hai
‘teen munhwali’ ek khaufnak parchhain
tumhare samne
tange pasarkar
bejhijhak let gai hai
ye bhasha ki raat—
nangi
aur
thanDi
aur
kali
‘teen munhwali’ ye bhasha ki raat hai
tumhari ub ka
chehra pahankar
hatyaron ne
phir
usi zuban mein
bolna shuru kiya hai
jismen tumhare bachpan ki
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aur
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unke bhitar
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tumhare pasine ki badbu se
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yani unhonne man liya hai ki
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use roshni mein
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pura adhikar hai
unhonne surakshait kar diye hain
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tumhare ghusse ke liye
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aur tumhari ub ke liye
‘waishnaw jan to tene kahiye’ ki
namkin dhun
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pura intzam hai
jahan chizen
tumhari shinakht ke abhaw mein
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wahan madari zuban mein
desh ka
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lekin tum
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chupchap—
khaDe ho
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tumhein waक़t mein
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laga hoon,
nahin—mujhe is tarah
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mat ghuro
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sharif hoon
saga hoon,
filaha,
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mera koi irada nahin hai,
magar sath hi
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zyada nahin hai
han, main bhi bhaybhit hoon
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banaye rakhne ke liye
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unhen hamari talash hai
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gaDna chahte hain
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roshni sunghnewale jasus kutton ka
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har taraf ‘jagte raho’ ke karishme
gasht kar rahe hain
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aj,
deshi danton ki dosti se
Dar raha hai
ye bhasha ki raat hai
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bhasha aur bhasha ke beech ki darar mein
uttar aur dakshain ki taraf
phan patakta hua
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reng raha hai
rozi ke nam par
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jagah jagah zahr
phenk raha hai
aur aur wo dekho ki—aऽऽ hai
prantiyata ka chehra lagaye hue
koi ghuspaithiya hai?
aur wo dekho wahan—
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jinki ankhon mein
rozgar daftar ki
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jhilmila raha hai—
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lekin rail ka Dabba
toot raha hai
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dahane par pahunch gaye hain
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pashanakalin gupha
shuru hoti hai)
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apni bhool chook ka
ata pata puchhne wala shahr—
bahut pichhe chhoot raha hai
door bahut door
jahan asman apne baune hathon se
hindustan ki zamin ko
nanga kar raha hai
ek wideshi mudrawala—
awaitanik dubhashaiya khilkhila raha hai—
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wo nihal—tondiyal
kaisa magan hai
huchur huchur hans raha hai
bhaDe ki bheeD ke andhe junun par
use, kati, etraaz nahin hai
uska kahna hai ki labh aur shubh ke beech
sindur to hai magar laj
nahin hai
ye sari awhelana—
ye sara josh
ye sari ub
ye sara rosh—
uske liye kewal tamasha hai
bina kisi kshaobh ke
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badal diye hain
kyonki baniya ki bhasha to sahamti ki
bhasha hai
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log ubte hain to uben
janta lattu ho
chahe tatasth rahe
baharhal, wo sirf ye chahta hai
ki uska ‘swastik’—
swasth rahe
o, bhashawar hamlon se halkan mere bhai!
kya tumhein ab bhi
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jiske adhikar mein
hamari litti hai,
chawal hai
iDli hai
dosa hai?
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uski nigah mein
tumhara ye tamil dukh
meri is bhojapuri piDa ka
bhai hai
bhasha us tikaDmi darinde ka kaur hai
jo saDak par aur hai
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mujhe apni boli mein sharik kar!
cheekh, apne hone ki piDa se cheekh
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ab aur tarah—
mat de
saf saf kah de—
bhookh jo kal tak roshni thi
aj, neend se pahle ka
jagaran hai,
suwidhaprast logon ke
usar dimagh mein
thuhar ki tarah ugi hui rajaniti
shabdon se bahar ka wyakaran hai,
saf saf kah de ki ye
sirf, sakari hui atmiyata hai
ki bhukha rahkar bhi adami
apne hisse ka akash
muskurate hue Dhota hai
apne desh ki mitti ko ankh ki
putli samajhta hai
warna, roti ke tukDe par
kisi bhi bhasha mein desh ka nam likhkar
khila dene se
koi deshabhakt nahin hota hai
स्रोत :
पुस्तक : संसद से सड़क तक (पृष्ठ 88)
रचनाकार : धूमिल
प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
संस्करण : 2013
Additional information available
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rare Unpublished content
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