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चुप्पी का समाजशास्त्र

chuppi ka samajashastr

जितेंद्र श्रीवास्तव

जितेंद्र श्रीवास्तव

चुप्पी का समाजशास्त्र

जितेंद्र श्रीवास्तव

और अधिकजितेंद्र श्रीवास्तव

    उम्मीद थी

    मिलोगे तुम इलाहाबाद में

    पर नहीं मिले

    गोरखपुर में भी ढूँढ़ा

    पर नहीं मिले

    ढूँढ़ा बनारस, जौनपुर, अयोध्या, उज्जैन, मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार

    तुम नहीं मिले

    किसी ने कहा

    तुम मिल सकते हो ओरछा में

    मैं वहाँ भी गया

    पर तुम कहीं नहीं दिखे

    मैंने बेतवा के पारदर्शी जल में

    बार-बार देखा

    आँखे डुबोकर देखा

    तुम नहीं दिखे

    तुम नहीं दिखे

    गढ़ कुंडार के खंडहर में भी

    मैं भटकता रहा

    बार-बार लौटता रहा

    तुमको खोजकर

    अपने अँधेरे में

    जाने तुम किस चिड़िया के ख़ाली खोते में

    सब भूल-भाल सब छोड़-छाड़

    अलख जगाए बैठे हो

    ताकता हूँ हर दिशा में

    बारी-बारी चारों ओर

    सब चमाचम है

    कभी धूप कभी बदरी

    कभी ठंडी हवा कभी लू

    सब कुछ अपनी गति से चल रहा है

    लोग भी ख़ूब हैं धरती पर

    एक नहीं दिख रहा

    इस ओर कहाँ ध्यान है किसी का

    पैसा पैसा पैसा

    पद प्रभाव पैसा

    यही आचरण

    दर्शन यही समय का

    देखो

    बहक गया मैं भी

    अभी तो खोजने निकलना है तुमको

    और मैं हूँ

    कि बताने लगा दुनिया का चाल-चलन

    पर किसे फ़ुर्सत है

    जो सुने मेरा अगड़म-बगड़म

    किसी को क्या दिलचस्पी है इस बात में

    कि दिल्ली से हज़ार कि.मी. दूर

    देवरिया जिले के एक गाँव में

    सिर्फ़ एक कट्ठे ज़मीन के लिए

    हो रहा है ख़ून-ख़राबा

    पिछले कई वर्षों से

    इन दिनों लोगों की समाचारों में थोड़ी-बहुत दिलचस्पी है

    वे चिंतित हैं अपनी सुरक्षा को लेकर

    उन्हें चिंता है अपने जान-माल की

    इज़्ज़त, आबरू की

    पर कोई नहीं सोच रहा उन स्त्रियों की

    रक्षा और सम्मान के बारे में

    जिनसे संभव है

    इस जीवन में कभी कोई मुलाक़ात हो

    हमारे समय में निजता इतना बड़ा मूल्य है

    कि कोई बाहर ही नहीं निकलना चाहता उसके दायरे से

    वरना क्यों होता

    कि आज़ाद घूमते बलात्कारी

    दलितों-आदिवासियों के हत्यारे

    शासन करते

    किसानों के अपराधी

    सब चुप हैं

    अपनी-अपनी चुप्पी में अपना भला ढूँढ़ते

    सबने आशय ढूँढ़ लिया है

    जनतंत्र का

    अपनी-अपनी चुप्पी में

    हमारे समय में

    जितना आसान है उतना ही कठिन

    चुप्पी का भाष्य

    बहुत तेज़ी से बदल रहा है परिदृश्य

    बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं निहितार्थ

    वह दिन दूर नहीं

    जब चुप्पी स्वीकृत हो जाएगी

    एक धर्मनिरपेक्ष धार्मिक आचरण में

    पर तुम कहाँ हो

    मथुरा में अजमेर में

    येरुशलम में मक्का-मदीना में

    हिंदुस्तान से पाकिस्तान जाती किसी ट्रेन में

    अमेरिकी राष्ट्रपति के घर में

    कहीं तो नहीं हो

    तुम ईश्वर भी नहीं हो

    किसी धर्म के

    जो हम स्वीकार लें तुम्हारी अदृश्यता

    तुम्हें बाहर खोजता हूँ

    भीतर डूबता हूँ

    सूज गई हैं आँखे आत्मा की

    नींद बार-बार पटकती है पुतलियों को

    शिथिल होता है तन-मन-नयन

    पर जानता हूँ

    यदि सो गया तो

    फिर उठना नहीं होगा

    और मुझे तो खोजना है तुम्हें

    इसीलिए हारकर बैठूँगा नहीं इस बार

    नहीं होने दूँगा तिरोहित

    अपनी उम्मीद को

    मैं जानता हूँ

    ख़ूब अच्छी तरह जानता हूँ

    एक दिन मिलोगे तुम ज़रूर मिलोगे

    तुम्हारे बिना होना

    बिना पुतलियों की आँख होना है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : जितेंद्र श्रीवास्तव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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