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चूल्हों की दुनिया

chulhon ki duniya

अनुज लुगुन

अनुज लुगुन

चूल्हों की दुनिया

अनुज लुगुन

और अधिकअनुज लुगुन

    हम चूल्हों की दुनिया से आए थे

    जहाँ चूल्हों के लिए आग थी

    आग के लिए लकड़ी थी

    लकड़ी के लिए पेड़ थे

    पेड़ों के लिए जंगल था

    जंगलों के लिए पंछी थे

    और पंछियों के लिए माँदल थे

    पूरा परिवार था

    चूल्हों की दुनिया में

    चूल्हों का बँट जाना

    परिवार का बँट जाना था

    लोगों का नहीं

    चूल्हों की महक

    पड़ोसियों के घर

    आ-जा सकती थी

    लोग सहज ही जानते थे

    चूल्हों की बात

    और इसके लिए

    मंदिर-मस्जिद या, कहीं भी

    चोंगा से बात फैलाने पर

    बात नहीं बिगड़ती थी

    चूल्हों की बात पर

    लोगों के मुँह में

    पानी भर जाता था

    या लोग नाक सिकोड़ते थे

    लेकिन इससे कभी

    किसी के देवता नाराज़ नहीं हुए

    चूल्हों की बात पर ही

    लोग सड़कों पर उतरते थे

    जुलूस की शक्ल में

    गोलियाँ चलती थीं

    कारख़ानों सें चिमनियों की जगह

    मज़दूर आसमान भेदते थे

    खेतों से किसान

    लोकगीतों से धार देते थे

    अपने ग़ुस्से को

    और जिनके चूल्हों को

    अछूत कहा गया

    उनके चूल्हों में ही

    सबसे ज़्यादा सपने खौलते रहे हैं

    चूल्हों की दुनिया में सबके लिए

    एक समान बात थी—स्वाद और ताप

    किसी बीते में नहीं है यह दुनिया

    किसी दूसरे के हाथ में नहीं है इसकी चाभी

    यह हमारे ही अंदर है

    जो केवल तनी हुई बंद मुट्ठियों से खुलती है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनुज लुगुन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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