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चाँद में अटकी पतंग

chaand mein atki patang

राकेश रंजन

राकेश रंजन

चाँद में अटकी पतंग

राकेश रंजन

और अधिकराकेश रंजन

    पहला नशा

    पहला जादू

    पहली उड़ान बनकर

    मेरे जीवन में आई

    पतंग

    स्कूल छोड़ने का

    पहला दुस्साहस

    टीचर से पिटने की

    पहली टीस

    घर-समाज के लिए

    फ़ालतू हो जाने की

    पहली दलील बनकर

    जिस दिन बाज़ार में

    नहीं मिलती पतंग

    मैं ख़ुद बनाता

    काग़ज़ काट, सींक जोड़

    चिपकाता, सुखाता

    नाथकर उड़ाता

    पतंग के लिए

    ज़रूरी नहीं था बाज़ार

    पतंग के सहारे

    मेरा उछाह आसमान छूता

    और उसकी पूँछ

    मेरे दिल में लहराती

    उसकी लय पर

    बलखाती मेरी कच्ची देह

    मेरे ख़्वाब

    सितारों-से जगमगाते

    कभी अचानक

    ऊपर जाती

    किसी शातिर की पतंग

    जीभ लपलपाती

    भुजाएँ फड़काती

    तलवार-सी नाचती

    हनहनाती

    जब भी मेरी पतंग कटती

    या हत्थे से उखड़ती

    उसकी ओर

    मैं दूर तक भागता

    पिछुआता

    लगता जैसे

    टूट गई आस की डोर

    या साँस की डोर

    असीम में खो जाती

    मेरी पतंग

    कोई नहीं देता उसका सुराग़

    पतंग के लिए माँ

    हर बार पैसे देती

    उसके पास नहीं होते

    फिर भी देती वह

    कहीं से जुगाड़ कर

    कभी-कभी

    खोंइछे से निकालकर

    मेरी एक पतंग

    अटक गई थी चाँद में

    अटकी है

    आज तक

    मैं मारता हूँ ठुनके

    ठुनके पर ठुनके

    पतंग छूटती है

    डोर टूटती है...

    स्रोत :
    • रचनाकार : राकेश रंजन
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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