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चटक धूप

chatak dhoop

चंचला पाठक

चंचला पाठक

चटक धूप

चंचला पाठक

और अधिकचंचला पाठक

    साटी-सी लगती है गात को

    भाद्रपद सहज नहीं उतरता

    हस्तिका के अंक में

    धान की क्यारियों से उठती तो है भाप

    पर ज़्यादा ऊपर जा नहीं पाती—

    ज्यूँ माँ की चटकन पड़ने पर भी

    नहीं दूर जाता शिशु

    लिपट जाता है उसी से पुनःपुनः

    यह भाप उच्छ्वास है

    प्रणय रत युगलों की रत्यांतर तृप्ति का

    निःशब्द सुनता है चराचर

    अप्रतिम इस आलाप को

    धान के सुपुष्ट गाभ में उतर रही

    बीज की संकल्पना

    सृजन के प्रगल्भ आलोक में

    जाने कितनी रात्रियों की सुगाढ़ साधना है

    कितने जन्मों की ड्योढी लाँघ

    आकारित होगा इन गाभों में अन्नाद

    जाने कितनी यात्राएँ

    ठिठककर देखती होंगी इस समुद्भवन को

    कृषक के स्पर्श की ऊष्मा से

    अभिमंत्रित हो रही अग्नियाँ

    जलभार से भारित है नदी

    नवोढा ज्यूँ प्रेम से जल-थल

    भेंट के पुष्पों की पुलक में चातकी का केलि स्वर

    तट के जल में गड़े सनई पर चटक पड़ती है धूप

    तपकर निखरती सनई

    जैसे तपोनिष्ठ प्रौढ ब्राह्मण कोई वरदहस्त

    करता हो स्वस्तिवाचन नदी के पुंसवन पर

    धान की मोरियाँ में भर रही सुगंध

    आतुर हैं चरण भाद्रपद के...

    स्रोत :
    • रचनाकार : चंचला पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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