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चरथ भिक्खवे चारिकं

charath bhikkhwe charikan

अरुण कमल

अरुण कमल

चरथ भिक्खवे चारिकं

अरुण कमल

और अधिकअरुण कमल

     

    टूट चुकी है मेरी नौका
    तटों पर बिखरा है मलबा

    चलते ही चलना है मेरा भाग्य
    जंगलों के बीच रास्ता बनता
    हाँकता रेवड़
    किसी नदी नाले झरने किनारे
    खूँटा गाड़ता 
    पूरी पृथ्वी हाथों से लीपता

    आज भी जब किसी मोड़ पर दिखते हैं बंजारे
    हवा में लहरता घाँघरा
    मैं काँपने लगता हूँ
    थरथराते हैं देह के बुरादे घूर्णों से भरे
    वही है उत्तर दिशा
    वही है मेरा विलुप्त महादेश—
    जैसे हाथी अपने पुराने जंगल को याद करता है
    वैसे ही कोई हवा मुझे चाँड़ती है—
    रात में दूर किसी ट्रेन की सीटी
    साफ़ आकाश में चाँद
    किसी ट्रक की घूमती-घूमती हेडलाइट
    पैरों की धूर
    पुकारती है मुझे
    चैत की हवा-सी घुमाती कभी यहाँ कभी वहाँ 
    अंतिम ठोप तक ऐंठती गारती

    चक्कर है मेरे पाँवों में
    मेरा शरीर एक बवंडर—
    जिसने हरदम खूँटा तोड़ा
    उस बैल की चमड़ी का जूता—
    मेरे लिए नहीं कोई चतुर्मास
    न अश्विन की पूर्णिमा की प्रवारणा 
    एक बार कथा बैठाकर 
    उठ भी तो नहीं सकता
    टूट चुकी है मेरी नौका

    अकेला पड़ता जा रहा हूँ रोज़
    भाप बन रहा है बचा हुआ जल
    बहुत ख़ाली लगा इस बार सिंधु का नगर
    स्मृति भी साथ छोड़ रही है
    बहुत यत्न पर देखता हूँ उठता हुआ धुआँ
    हवा का थक्का
    और किसी पत्तन सराय में
    देह-भित्ती की भंगुर टेक—
    इतना चले मेरे पाँव
    पर चलने में आधा तो रुका ही रहा
    एक पैर उठा तो एक पैर स्थिर

    गैंडे के सींग की तरह अकेला चलता चलूँगा
    दो घरों से अन्न उठाता—
    देवरारु से ढँके ढलान और चोटियाँ अकेली—
    वहीं एक निर्जन शिखर पर देखा था नर-कंकाल—
    हिम दूर तक हिम
    हवा बहुत पतली फिर खड्ड फिर अजपाद होते
    मंझा सूत-सी पहाड़ी नदी पार कर
    पड़ेगी एक बस्ती
    जहाँ मुझे जाना है ढूँढ़ने खंडित मूर्तियाँ

    कहाँ हैं वे खंडित मूर्तियाँ 
    कहाँ है वह आँख से छिटकी हुई ज्योति
    तटों पर बिखरा है मलबा

    बर्फ़ मढ़े शिखर पर थोड़ा सुस्ता
    फिर फड़फड़ा रहे हैं मेरे पंख
    फिर सूर्य को इतने समीप पा—
    शिखर छू वापस मैदानों में लौटने की इच्छा—
    फिर वही हवा चैत की फिर वही धरती कदंब का फूल
    जो बसी है हवा सृष्टि की पहली हवा मेरे फेफड़ों में 
    उसे किसी वृक्ष के कोटर में रख दूँ

    हिम दूर तक हिम
    यहाँ अच्छा लग रहा है 
    सूख रहा है पसीना
    अलग हो रहा है रोआँ-रोआँ
    ढेले-सा भरक रहा है शरीर
    अच्छा लग रहा है यहाँ बैठे रहना—
    हिम दूर तक हिम ही हिम और देवदारु
    ओफ़्फ़, मैं भूल ही गया था
    मुझे एक छठ्ठी में जाना है
    और एक श्राद्ध में!
    _______________
    राहुल सांकृत्यायन के यात्रा-पर्यवेषणों पर आधारित

    स्रोत :
    • रचनाकार : अरुण कमल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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