चाक़ू
chaqu
लोहे से बना एक चाक़ू मेरे घर में
बाबा के लोहार दोस्त का बनाया हुआ
बेकार-से लोहे को पीट-पीटकर गढ़ा हुआ
बुआ, बहन, माँ और पत्नी काटतीं सब्ज़ियाँ इससे
धार कुंद है अब सब्ज़ी भी नहीं कटती इससे
कोई पारस पत्थर नहीं मिला इस चाक़ू को
और वधिकों के घर रखे चाक़ुओं का रंग सुनहला होता गया
‘सो दुविधा पारस नहिं जानत कंचन करत खरौ’
चाक़ू प्रतीक बन जाता एक कटार की शक्ल में
जब सिख रखते इसे बहुत इज़्ज़त के साथ
रामपुरी चाक़ू से तो ख़ैर डरते सभी लोग
ख़ाली कर देते अपनी जेबें पूरी तरह
जैसे स्खलित हो गया हो समुद्र
अँग्रेज़ों ने बनाए प्लास्टिक के चाक़ू
जन्मदिन पर केक काटने के लिए
चाक़ू पर शान देने वाले तमाम फेरीवाले बेरोज़गार
प्लास्टिक के चाक़ुओं से फल नहीं कटता
कटहल नहीं कटता
पहले लोहे के पुराने सामान कबाड़ी वाले को देकर
बदले में मिलता था लोहे का चाक़ू एक नया
बाद में पैसे से खुले बाज़ार में मिलने लगा चाक़ू
फिर पैसा ही चाक़ू हो गया
जो काटता दिन-रात तमाम बंधनों को
और आत्मतोष के लिए कहा जाता
कि बंधनों से मुक्ति ज़रूरी है।
- रचनाकार : प्रांजल धर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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