चाँदनी चमकती है गंगा बहती जाती है
chandni chamakti hai ganga bahti jati hai
एक
चल रही हवा
धीरे धीरे
सीरी सीरी;
उड़ रहे गगन में
झीने झीने
कजरारे
चंचल
बादल!
छिपते दिपते
जब तब
तारे
उज्जवल, झलमल।
चाँदनी चमकती है गंगा बहती जाती है
दो
ऋतु शरद और
नवमी तिथि है
है कितनी कितनी मधुर रात
मन में बस जाती शीतलता
है अभी नहीं जाड़ा कोई
बस ज़रा ज़रा रोएँ काँपे
तन-मन में भर आया अजीब रहा—
रिमझिम रिमझिम पानी बरसा
फिर खुला गगन
हो गई धूप
दिन भर ऐसा ही रहा तार
कपसीले, ऊदे, लाल और
पीले मटमैले—दल के दल
आए बादल
अब रात
न उतना रंग रहा
काला—हल्का या गहरा
या धुएँ-सा
कुछ उजला उजला
किसके अतृप्त दृग देखेंगे
चाँदनी चमकती है गंगा बहती जाती है
तीन
कुछ सुनती हो,
कुछ गुनती हो,
यह पवन, आज बार बार
खींचता तुम्हारा आँचल है
जैसे जब जब छोटा देवर
तुम से हठ करता है जैसे
तुम चलो जिधर वे हरे खेत।
वे हरे खेत—
है याद तुम्हें?—
मैंने जोता तुमने बोया
धीरे धीरे अंकुर आए
फिर और बढ़े
हमने तुमने मिलकर सींचा
फैली मनमोहन हरियाली
धरती माता का रूप सजा
उन परम सलोने पौदों को
हम दोनों ने मिल बड़ा किया
जिनका नहलाते हैं बादल
जिनको बहलाती है बयार
वे हरे खेत कैसे होंगे
कैसा होगा इस समय ढंग
होंगे सचेत या सोए-से
वे हरे खेत
चाँदनी चमकती है गंगा बहती जाती है
चार
है सन्नाटा बढ़ रहा
रात भी बीत रही है
सारा आलम सोया है
पशु-पंछी सोए हैं
तो अर्थहीन
कुछ अर्थपूर्ण
स्वर जग में व्यापे
फिर कौन कहे
दुनिया कब,
क्या क्या, जीत रही है
तब कौन किसे समझाए
सब खोए खोए हैं
फिर कौन कहाँ तक जन जन की
करुणा को नापे
चाँदनी चमकती है गंगा बहती जाती है
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 96)
- रचनाकार : त्रिलोचन
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1985
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